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मूलाचार प्रदीप ]
( ४३०)
[ दाम अधिकार
अर्थ-उस क्षपक को इसप्रकार चितवन कर तथा ध्यान धारण कर अपने मन को स्थिर रखना चाहिये और अपने मन को क्लेश और दुःखों के समीप रंचमात्र भी नहीं जाने चाहिये ॥२८००॥
निरोहवृत्ती धारक क्षपक महा लोभ के लिये कैसी उत्तम याचना करता हैतदासोति निरोहोपिमहालोभकृतोद्यमः। उत्तमामुत्तमाप्त्यियांचाकुर्यादिमांभुवि ।।२८०१।। अहंतांवीतमोहानामकाथनां च या गतिः । पंचमीनिलगत्प्राा सा मे भवतुशमणे ।।२८०२।। सोयशसिद्धनिर्मोहयोगिनां ये परागुणाः । अनन्तज्ञानदृष्टयाद्यास्ते मे सन्तुशिवाप्तये ॥२८०३॥
अर्थ-उस समय यद्यपि वह क्षपक निरीह वृत्ति को धारण करता है तथापि वह किसी महा लोभ के लिये उद्यम करता है और इसीलिये वह उत्तम अर्थ अर्थात् मोक्षकी प्राप्ति के लिये नीचे लिखे अनुसार सबसे उत्तम याचना करता है । वह याचना करता है कि भगवान वीतराग अयोगकेवलो अरहंतदेव को जो तीनों लोकों के द्वारा प्रार्थनीय पंचम गति होती है वही सुख देने के लिये मुझे प्राप्त हो । भगवान तीर्थकर परमदेव, भगवान सिद्ध परमेष्ठी और मोह रहित मुनियों जो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन आदि उत्सम गुण हैं वे सब मोक्ष प्राप्त होने के लिये मेरे आत्मा में प्रगट हों ॥२८५१२६०३॥
क्षपक को उत्तम याचना के लिये कैसा चितवन करना चाहियेरस्मत्रमयुता बोषिःसमाधिः शुक्लपूर्वकः । यावधास्याम्यहं मोक्ष तावन्मस्तु भवेभवे 11२८०४।। अमोभिर्दु डराधारः कृत्स्नदुष्कर्मणांक्षयः । चतुर्गतिजदुःखानां मे वास्तुमुक्तिहेतवे ।।२०५॥ जिननाथजगत्पूज्य देहि त्व सन्मृतिमम् । प्रधुना त्यगुणानसर्वास्त्वद्गसिंचाशुभक्षयम् ।।२८०६॥
___ अर्थ-जब तक मैं मोक्ष प्राप्त न कर ल तब तक मुझे भवभव में रत्नत्रय सहित बोधि को प्राप्ति होती रहे और शुक्लध्यान पूर्वक समाधि की प्राप्ति होती रहे । मैंने जो मोक्ष प्राप्त करने के लिये कठिन-कठिन तपश्चरण किये हैं, उनके फल से मेरे समस्त कर्मों का नाश हो तथा चारों गतियों के समस्त दुःखों का नाश हो । हे जिननाथ ! हे जगत्पूज्य ! आप मुझे इस समय श्रेष्ठ मरण देखें, अपने सब गुण देवें, अपनी सब सद्गति देखें और मेरे सब अशुभों को नाश करें। इसप्रकार उस क्षपक को चितवन करना चाहिये ।।२८०४-२८०६॥
मृत्यु के निकट आनेपर पञ्चपरमेष्ठी का जग एवं ध्यान करने की प्रेरणामुत्ययस्यां कमानाप्य परमेष्ट्मास्यसत्पदाम् । पंचवात्रजपेद्वाघासचकव्याक्सित्पबम् ॥२८०७३