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मूलाचार प्रदीप ]
( ४३६ )
[ एकादश अधिकार समझकर बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्वक इन समस्त शीलों का पालन करते रहना चाहिये । जो छोटी बुद्धिको धारण करनेवाले हैं उनके लिये तो इन शोलों का पालन करना अत्यन्त कठिन है ।।२८४७ - २६५१॥
मुनिराज के ८४ लाख गुणों के भेद
एकविंशतिसाद्याश्चत्वारीतिकमारयः । शतपृथ्व्यादिकायाश्चदश ब्रह्म विराधनाः ।। २६५२ ।। दशालोचनमा दोषा दयाशुद्धिकरा इमे । श्रन्योन्यंर्वागिता लक्षा प्रशीतिश्चतुरुत्तराः ॥२०५३ ।।
अर्थ - हिंसादिक के इक्कीस भेद हैं। प्रतिक्रमणादिक के चार भेद हैं, पृथ्वीकायादि के सौ भेद हैं, ब्रह्मचर्य की विराधना के दश भेद हैं, आलोचना के दश दोष है और इनके त्याग को शुद्ध करनेवाले दश गुण हैं । इन सबको गुणा करने से चौरासी लाख हो जाते हैं ।। २८५२-२८५३ ।।
प्राणिहिंसादिक के २१ मेदों का निर्देश
प्राणिहिंसामृषावादोऽवत्तावानं च मंथुनम् । संगः क्रोषोमदोमायालो भोभयोरतिस्ततः ।। २८५४ ।। रतिस्तथाजुगुप्साथ मनोवाक्काय चंचलाः । मिथ्यादर्शनमेवप्रमादः पशून्यमेव हि ।। २८५५ ।। अज्ञानकारणमनिग्रह इमेभुवि। एकविंशति दोषाः स्युनं खां दोषविधायिनः ।। २८५६ ॥
अर्थ -- प्राणियों की हिंसा करना १, झूठ बोलना २, चोरी करना ३, मैथुन सेवन करना ४, परिग्रह रखना ५, क्रोध ६, सब ७, माया ८, लोभ है, भय १०, अरति ११, रति १२, जुगुप्सा १३, मन की चंचलता १४, वचन की चंचलता १५, काय की चंचलता १६, मिथ्यादर्शन १७, प्रमाद १८, पंशुन्य १६, अज्ञान २० और पंचेन्द्रियों का निग्रह न करना ये समस्त दोषों को उत्पन्न करनेवाले प्राणिहिंसादिक इक्कीस दोष हैं।
।। २८५४-२८५६ ॥
किसके गुरण हो जाते हैं
या दिवसाचा विपरीताः कृता इमे । दोषागुणा हि तेषां स्युस्त्रिजगत्पूज्ययोगिनाम् ।। २८५७।। अर्थ-यदि दया श्रादि व्रतों को पालन कर इन दोषों के विपरीत आचरण किये जांब तो तीनों जगत के द्वारा पूज्य मुनियों के लिये वे ही सब गुण हो जाते हैं।
॥२८५७॥
अतिक्रमणात्रि दूषणों के त्यागने से व्रतादि धर्म की वृद्धि होती हैप्रतिक्रमणमेकं व्यतिक्रमा एव हि । मसौधारोप्यमाचाबोवाश्चत्वारो ।। २६५८ ।।