Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 485
________________ मूलाचार प्रदीप ] ( ४४० ) [ एकादश अधिकार ताबीनांप्रयत्नेन सहिता ये जितेन्द्रियाः । जयन्ते ते गुणास्तेषां व्रतादिधर्मवृद्धिदाः ।। २८५६ ।। अर्थ - अतिक्रमण, व्यतिक्रमरण, प्रतिचार और अनाचार ये चार प्रतिक्रम श्रादि वोष कहलाते हैं । जो जितेन्द्रिय पुरुष इन दोषों का त्याग कर देते हैं, उनके व्रतावि धर्म की वृद्धि करनेवाले वे गुण हो जाते हैं ।। २८५८ - २८५६ ॥ गुणों के ८४ भेदों का निर्देश- गुणंग चतुभिरेभिस्तेप्राग्गुलाएकविंशतिः । गुणाश्चतुरशीतिश्च भवेयुनुं खिताः सताम् ।। २=६० । अर्थ- पहले जो हिंसा का त्याग श्रादि इकईस गुण बतलाये हैं, उनके साथ इन चार अतिक्रमादि के त्याग से गुणा कर देने से गुणों के चौरासी भेद हो जाते हैं । ।। २८६० ।। जीवादि की विराधना से १०० भेद पृथ्व्यपसे जोम रत्प्रत्येकानन्तकायदेहिनः । द्वीप्रियास्त्रीन्द्रियास्तु में न्द्रियाः पंचेन्द्रियादश ।। २८६१ ।। इमे मेवा किला यस्ताः पृथ्थ्याद्याः परस्परम् । शस मेदाभवन्मयत्रदोषास्तेषाविराधनात् ।।२८६२। श्रमतिर्मायोषास्तावन्तः गुंगा हि ते ।। २६६३ ।। अर्थ - पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये दस जीवोंके भेव होते हैं तथा इन दशों प्रकार के जीवों की विराधना के वश भेव हो जाते हैं, इनको परस्पर गुणा कर देने से दश प्रकार के प्राणी और उनकी दश प्रकारकी विराधना इन दोनों को परस्पर गुणा कर देने से सौ भेद हो जाते हैं। श्रेष्ठ व्रतोंको धारण करनेवाले जो मुनि प्रयत्न पूर्वक इन दशों प्रकार के प्राणियों की रक्षा करते रहते हैं और उनको दश प्रकार की विराधना से बचाते रहते हैं, उनके उत्तरगुणोंके सौ गुण माने जाते हैं । ।।२८६१-२८६३॥ ८४०० भेदों का कथन निर्देश गुणा मचतुरशीतिस्ते शतेनानेनवगिताः । गुणाभवन्ति वक्षैश्चतुराशीतिशतप्रमाः || २६६४ ।। अर्थ --- पहले उत्तरगुणों में चौरासी गुण बतला चुके हैं, उनको इन सौ से गुणा कर देने से चौरासी सौ भेव हो जाते हैं ||२८६४॥ ब्रह्मचर्य की विराधना करनेवाले १० भेदों के कथन निर्देश -- स्त्रीसंसगों महास्वाद र साधाहार भोजनम् । गंधमाल्यादिसंस्पर्श. कोमसंशयनासनम् ।। २८६५ ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544