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मूलाचार प्रदीप ]
( ४३८ )
[ एकादश अधिकार वशभिगुणितान्येभि प्रष्टावशशतानि च । अष्टादशसहस्राणि सन्ति शीलानियोगिमाम् ।२०४४।।
अर्थ-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम प्रार्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उसम संयम, उत्तम तप, उत्सम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य यह दश प्रकार का धर्म है । यह धर्म जगत्पूज्य है और मुनियों को मोक्ष प्रदान करनेवाला है । कपर जो शील के अठारहसो मेद बतलाये हैं उनसे इन दश धर्मों के साथ गुणा कर वेने से अठारह हजार भेद हो जाते हैं । ये सब मुनियों के शील कहलाते हैं ॥२८४२२८४४॥
यि महिमा... इत्यादिगणनाभिश्च जायन्ते प्रतधारिणाम् । सुशीलानां यतीशानां शोलानि निखिलान्यपि ४२॥ अष्टादशसहस्रप्रमाणाम्यामि नाकिभिः । निर्मलामीह त्रैलोक्ये नन्तशकिराणि ॥२८४६।।
अर्थ-इसप्रकार की गणना से व्रतों को धारण करनेवाले और शोलों को पालन करनेवाले मुनिराजों के शीलों के सब भेव हो जाते हैं। ये अठारह हजार झील इन्द्रों के द्वारा भी पूज्य हैं, अत्यंत निर्मल हैं और तीनों लोकों में अनंत कल्याण करने वाले हैं ॥२८४५-२८४६।।
___शील के पालने वाले की महिमा एवं उस पालने की प्रेरणाशोलाभरणयुक्तांश्च त्रिजगच्छी। स्वयंमुदा। वरणोत्पत्य जिनौषधमुक्तिरालोकतेमुहः ।।२८४७॥ प्रकम्पातेसुरेशामा शोलेनाथासतानि भोः। किंकराइवसेवन्ते पायान् शील जुषासुराः ।।२८४८।। विघटन्ते सुशीलानां सर्वोपदवकोटयः । निरर्गला भ्रमेकीतिश्चन्द्राशुवज्जगत्त्रये ।।२८४६।। जीवितव्यंदिनकं च वरं शीलवतां भुवि । निःशीलानां क्या नूनं पूर्वकोटिशतप्रभम् ॥२८५०॥ मत्वेतीमानिशीलानि सर्वाणि कृत्स्नयत्नतः । पालमन्तु बुधा मुक्त्यदुर्लभान्यल्पञ्चेतसाम् ।२८५१॥
अर्थ---जो महा पुरुष इन अठारह हजार शीलों से सुशोभित हैं उनको तीनों लोकों की संपदा प्रसन्नता के साथ स्वयं आकर स्वीकार करती है तथा भगवान जिनेन्द्रदेव की लक्ष्मी और मुक्तिरूपी लक्ष्मी बार-बार उनको देखती है। इन शीलों के प्रभाव से इन्द्रों के प्रासन भी कंपायमान हो जाते हैं तथा शोल पालन करनेवालों के धरण कमलों की देव लोग भी सेवन के समान सेवा करते रहते हैं । शील पालन करनेवालों के समस्त करोड़ों उपनय स्वयं नष्ट हो जाते हैं और चन्द्रमा के समान उनकी निर्मल कोति निरर्गल होकर तीनों लोकों में फैल जाती है। शील पालन करनेवालों का एक दिन भी जीना अच्छा परंतु बिना शील के सैकड़ों करोड़ वर्ष भी जोना व्यर्थ है । यही