Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 482
________________ मुलाचार प्रदीप ] ( ४३७ ) [ एकादश अधिकार योगों को ४ संज्ञा से गुणा करनेपर शील के ३६ भेदों का कथनआहारभयसंज्ञे संज्ञे मैथुनपरिग्रहे । चतुरन्नादिसंज्ञानां चतुर्षाविरतो जयः ॥ २८३६ ।। क्रियन्ते मुनिभिस्ताभिश्चतुभि खिता नव । मेदाभवन्तिशीलस्य षत्रिंशत्संख्यकाः सताम् ।। ३७।१ अर्थ--- श्राहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये संज्ञा के चार भेद हैं, इनका त्याग करना अर्थात् आहार संज्ञा का त्याग करने के लिये अन्नादिक का त्याग कर देना, भय के त्याग के लिये परिग्रह नहीं रखना, मैथुन के त्याग के लिये ब्रह्मचर्य धारण करना और परिग्रह के त्याग के लिये ममत्व छोड़ना संज्ञाओं का त्याग है । ऊपर कहे हुए योग निरोधों के नौ भेदों से इन चार के साथ गुणा करने से शील के छत्तीस भेद हो जाते हैं ||२८३६-२८३७।। ३६ भेदों को ५ इन्द्रिय से गुणा करनेपर १८० भेद होते हैं-स्पर्शाक्षरसनप्रारण चक्षुः भोत्र निवारणः । षट्त्रिंशङ्खगिता मेदाः स्पुरणोत्यधिकशतम् ॥ २८३८ ।। अर्थ- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु श्रौर ओत्र ये पांच इन्द्रियां कहलाती हैं । इनको वश में करना इन्द्रियों का त्याग है । इसलिये छत्तीस से इन पांचों को गुणा करने से शील के एकसौ अस्सी भेद हो जाते हैं ।। २८३८ || शील के १८०० भेदों का कथन -- पृथ्य पुत्रेआमप्रत्येकानन्तकायिकाः भुवि । द्विवितुर्ये न्द्रियाः पंचाक्षरचे निवशभागिनः ।। २६३६ ।। अमीषा रक्षणान्यत्र विधीयन्ते सुनीश्वरः । यत्नेनयानि तानिस्युदंशशीलानि घोमताम् ॥२८४० ॥ क्रियाशीत्यधिकशतम् । अष्टादश शतान्युत्पद्यन्ते शीलानियोगिनाम् ।।२८४१ ॥ अर्थ - पृथिवीकायिक, जसकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक प्रत्येक वनस्पतिकायिक, साधारण वनस्पतिकायिक, वोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये यश प्रकार के जीव हैं । मुनिराज इन दशों प्रकार के जीवों की रक्षा प्रयत्न पूर्वक करते हैं । इसलिये ये बश मेद भी शील के ही गिने जाते हैं। ऊपर जो शील के एकसौ अस्सी भेद बतलाये हैं उनसे इन दश के साथ गुणा कर देने से शोल के अठारहसौ भेव हो जाते हैं ।। २८३६-२६४१ ।। शील के १८००० भेदों का कथन -- उत्तमाद्याश्रमामा सारं चार्जयोत्तमम् । सत्यं शौचं महत्संयमस्तपस्तपागऊजितः ॥२६४२ ॥ wifierमोह्मचर्यं दशविषः परः । एषधर्मो जगत्पूज्यः श्रमरणानां शिवप्रवः || २८४३ ॥

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