________________
मूलाचार प्रदीप]
( ४३२)
[ दशम अधिकार समस्त कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और सिद्धों के आठों परमगुणों को प्राप्त कर लेते हैं ।।२८१२-२८१३॥
"
जघन्य प्राराधन का फल
मन्याराधना येषां तेऽपि भुक्त्वा परंसुखम् । सप्ताभवपर्यन्तंहिगीयान्तिनि तिम् ।।२९१४।। - अर्थ-जो भव्य जीव जघन्य रीति से आराधनाओं की आराधना करते हैं वे भी सात पाठ भव तक परम सुखों का अनुभव करते हैं और अंत में कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥२८१४॥
उत्तम मरण को सिद्ध करने की प्रेरणाइतिशास्था फलं सारं मरणस्योसमस्य च । साधयन्तुविदोषस्नाशिवायमरणोत्तमम् ॥२८१५।।
अर्थ---इसप्रकार उत्तममरण का ऐसा अच्छा फल समझकर विद्वान लोगों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रयत्न पूर्वक उत्तम मरण को सिद्ध करना चाहिये । ॥२८१५॥
सर्प काटने आदि उपसगं के आनेपर दो प्रकार के सन्यास धारण करने की प्रेरणायविसर्पविषाांश्च चौपसर्गेन पादिजः । मरणं जायते स्वस्य ससन्देहं तदासुधीः ॥२८१६॥ समासेन अगजन्तुन अममित्या स्वमानसे । कृतकारिसयोषादीविनिसानिन्दनादिभिः ॥२८१७।। भूत्यासवंत्रनिःशल्योनिर्ममत्वंविधाय च । सन्यास निषिधंहीवगृह्णातिशिवसिद्धये ।।२८१८॥
अर्थ---यदि सर्प काट ले वा विष भक्षण करले वा राजा आदि का घोर उपसगं प्रा जाय और अपने मरने में सन्देह हो जाय तो उस बुद्धिमान को संक्षेप से ही अपने मन में संसार के समस्त प्राणियों को क्षमा कर देना चाहिये, तथा कृत, कारित, अनुमोदना से हुए समस्त दोषों की निधा गर्दा के द्वारा पालोचना करनी चाहिये तथा सर्वत्र शल्यरहिल, ममत्वहित होकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये नीचे लिखे अनुसार दोनों प्रकार का सन्यास धारण करना चाहिये ॥२८१६-२८१८।।
पहले सन्यास मरण धारण करने का स्वरूप--- अस्मिनदेशेऽवधौकाले यदि मे प्राणमोचनम् । तदास्तु जन्मपर्यन्तंप्रत्याख्यानं चतुविषम् १२६१६ जीविष्यामिचिदाहं पुण्येनोपद्रवात्परात् । करिष्ये पारणे नूनं धर्मघारित्रसिद्धये ।।२८२०॥
अर्थ-उसको पहला सन्यास तो इसप्रकार धारण करना चाहिये कि इस देश में इसने काल तक यदि मेरे प्राण निकल जांय तो मेरे जन्म पर्यत चारों प्रकार के