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मूलाचार प्रदीप]
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[ दशम अधिकार अर्थ- जिसका शरीर और पराक्रम क्षीण हो गया है ऐसा वह बुद्धिमान योगी यदि उस समय बाह्य योग धारण करने में असमर्थ हो जाय तो फिर मोक्ष प्राप्त करने के लिये उस योगी को एकाग्रचित्त से निरन्तर समस्त आराधनाओं की आराधना पूर्वक सारभूत अभ्यन्तर योग धारण करना चाहिये ।।२७०७-२७८८।।
पञ्चपरमेष्ठी वाचक पदके चितवन की प्रेरणाएतस्मिन्समयेवोवादया।गाखिनागमम् । चित्तें चिन्तयितु धीरः सोऽशक्तोपिमहामनाः ।।२७६॥ सर्वसिद्धान्तमूलंयत्पदमेकरयादिकम् | सारं तच्चिन्तयेच त्या प्रशस्तध्यानसिद्धये ॥२७६०॥
अर्थ-यवि उस समय वह महामना धीर वोर चतुर क्षपक अपने मनमें द्वादशांग श्रुतनान को चितवन करने में समर्थ न हो तो उसको प्रशस्त ध्यान की सिद्धि के लिये समस्त सिद्धांतों का मूलकरण और सारभूत ऐसा पंचपरमेष्ठी का वाचक एक पद का वा दो पद का युक्तिपूर्वक चितवन करना चाहिये ।।२७८६-२७६०॥
क्षपक को दुष्ट व्याधि मानेपर कैसी औषधि सेवन करना चाहियेक्षीणगारे तदा तस्य दुधियितेवदि । सोधपाकेततबाम्य होवं गृह्णाति धौषधम् ॥२७६.१॥
अर्थ-कदाचित् पापकर्म के उदयसे उस समय उस क्षपक के क्षीण शरीर में कोई दुष्ट व्याधि उत्पन्न हो जाय तो उसको दूर करने के लिये उस क्षपक को नीचे लिखे अनुसार औषधि ग्रहण करनी चाहिये अर्थात् नीचे लिखे अनुसार चितवन करना चाहिये ॥२७६१।।
क्षपक को जिनवचन रूपी अमृतरस का ग्रहण करने की प्रेरणाजिनेन्द्रवचनं तथ्यं जन्ममृत्युपरास्तकम् । रोगग्लेशहरयत्स्याद्विश्वदुःखक्षयंकरम् ॥२७६२।। प्राह्य तखिमयासारं रोगक्लेशातशान्तये । जन्मादिदाहनाशायसुधारसमियोजितम् ।।२७६३॥
अर्थ-उसे चितवन करना चाहिये कि इस संसार में भगवान जिनेन्द्र देव के वचन ही तथ्य हैं वे ही जन्म मरण और बुढ़ापे को नष्ट करनेवाले हैं, रोग और क्लेश को दूर करनेवाले हैं और समस्त दुःखों को क्षय करनेवाले हैं । अतएव रोग और क्लेर्मो के दुःखों को दूर करने के लिये और जन्ममरण का संताप शांत करने के लिये उत्कृष्ट अमृतरस के समान सारभूत जिनवचन मुझे ग्रहण करने चाहिये ॥२७६२-२७६३॥
क्षपक रोगों से उत्पन्न क्लेशों को शांत करने के लिये किसकी शरण लेता हैअस्मा द्रोगभवाले शायरथामिसंप्रति । सहित्सिवसाधूनाशरण्यानावगरसताम् ॥२५॥