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मूलाचार प्रदीप ]
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.. [ दशम अधिकार ___ अर्थ-देखो इस प्राहार के ही निमित्त से बड़े-बड़े मत्स्प सातवें नरक तक पहुंचते हैं, इसलिये कहना चाहिये यह आहार ही अनेक अनों का समुद्र है । जिन्होंने पहले बहुत से तपश्चरण का अभ्यास किया है तथा कभी निवान किया नहीं है और मोक्ष प्राप्त करने के लिये जिन्होंने कषायों को नष्ट कर भूख प्यास आदि से होनेवाली समस्त तीव्र परीषहों का सहन किया है तथा अंत में जिन्होंने उत्तम पंडितमरण सिद्ध कर लिया है वे ही मुनि इस संसार में धन्य हैं और उन्हीं का समस्त तपश्चरण सार्थक है ।।२७७३-२७७५॥
कैसे मुनि संसार समुद्र में डूबते हैंपूर्वकृततपोधोराः प्रतिपालितसव्रताः । पश्चात्कर्मगुरुस्वेनावाद्यतिपरीषहः । २७७६।। ये पतन्तिरवर्यादेत्युकाले भवार्णवे । मज्जनंनिश्चितं तेषां वृथातपोयमादिकम् ॥२७७७।।
अर्थ-जिन्होंने पहले घोर तपश्चरण किये हैं और श्रेष्ठ व्रतों का अच्छी तरह पालन किया है, परंतु पोछे कर्मों के तीन उदय से क्षुधादिक कठिन परीषहों के कारण मरण के समय में अपने धैर्य से गिर जाते हैं वे इस संसाररूपी समुद्र में अवश्य डूबते हैं तथा उनका तप यम प्रादि सब व्यर्थ समझा जाता है ॥२७७६-२७७७॥
क्षपक क्षुधादि परीषहों को सहता हैइत्यादिचिन्तनैरेपोत्रासेम्यः शुद्धचेतसा । सहत्तेपरयाशक्त्यानुषातृषादिवेदनाम् ।।२७७६।।
अर्थ- इसप्रकार शुद्ध हृदय से चितवन करता हुआ वह पति कभी क्षुब्ध नहीं होता और अपनी परम शक्ति प्रगट कर क्षुधा तृषा आदि परीषहों को सहन करता है। ॥२७७॥
क्षपक को पूर्व में किये गये भ्रमण के चितवन की प्रेरणाशुष्काघरोवरस्यास्यक्षीणमात्रस्ययोगिमः । चर्मास्थिमात्रशेषस्यकाठिन्यसंस्तरेण च ।।२७७६।।
उत्पद्यतेमहायुःखपषमानसे तदा । चिन्तयेत्प्राक्तनस्वस्य भवनमरणमंजसा ।।२७१०।।
___ अर्थ-जिसके ओठ पेट सब सूख रहे हैं, जिसका शरीर अत्यंत क्षीण हो रहा है और केवल हड्डी चमड़ा ही बाकी रह गया है, ऐसे उस क्षपक योगी को कठिन सांथरे का महा दुःख उत्पन्न होता है, उस समय उसको अपने हृदय में पहले किए हुए संसार के परिभ्रमण का चितवन करना चाहिये ।।२७७६-२७८०॥