Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 470
________________ मूलाचार प्रदीप ] [ दशम अधिकार अर्थ-इसप्रकार उपवास धारण करने से यदि भूख प्यास की वेदना अधिक होती हो तो उस बुद्धिमान् क्षपकको भी नीचे लिखे अनुसार चितवन करना चाहिये। देखो मैंने नरकों में भूख की इतनी महा वेदना सहन की है कि यदि उस समय तीनों लोकों का समस्त अन्न खाने को मिल जाता तो भी वह मूख नहीं मिटती तथा वहाँ पर प्यास की भी इतनी वेदना सही है कि यदि तीनों लोकों के समुद्रों का जल भी पीने को मिल जाता तो यह प्यास नहीं मिटती । इसीप्रकार जंगल और पर्वतों पर हिरण आदि पशुओं की पर्याय मगतृष्णा के द्वारा अत्यन्त तीन भूख और प्यास को वेदना सहन की है। इस संसाररूपी वनमें परिभ्रमण करते हुए मैंने इनके सिवाय और भी भूख प्यास की असह्य और धोर वेदनाएं वा परीषहें सहन की है। अनादि कालसे परिभ्रमण करते हुए मैंने भूख की वेदना मिटा देने के लिये अन्न को समस्त पुद्गल राशि भक्षण करलो है तथा प्यास की वेदना मिटाने के लिये समुद्रों के जल से भी अधिक जल पी डाला है । तथापि इस अन्न जल के भक्षण करने से रंचमान भी मेरो तृप्ति नहीं हुई है, किंतु ये भूख प्यासको दोनों कुवेदनाएं प्रतिदिन बढ़ती ही जाती हैं ॥२७६४-२७६६।। काम भोग माताती हैं कर दि : त के गर । ... यथेन्धनचयरग्निः समुद्रश्च नदीशतः । तृप्ति नेति तथा जीव: कामभोगः प्रमातिगः ।।२७७०।। कांक्षितो मूच्छितो रोगो कामभोगश्चमानसे । नित्यं कलुषितोभूतो भुआनोऽपिकुमागंगः ॥७१॥ भोगान् दुष्परिणामेनश्वभ्रदुःखनिबन्धनम् । दुरन्त पापंसन्तापवघ्नाति केवलं यथा ।।२७७२॥ अर्थ-जिसप्रकार ईंधन के समूहसे अग्नि तृप्त नहीं होती और सैकड़ों नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता उसीप्रकार प्रमाण से अधिक काम भोगों का सेवन करनेपर भी यह जीव कभी तृप्त नहीं होता। यह जीव अपने मनमें काम भोगों के ही कारण अनेक पदार्थों की इच्छायें करता है, भूछित होता है, रोगी होता है तथा वह कुमार्गगामी भोगों को नहीं भोगता हुन्मा भी सदा कलुषित परिणामों को धारण करता है, उस कलुषितरूप अशुभ परिणामों के कारण व्यर्थ हो नरक के महा दुःखों के कारण और अत्यंत कठिन ऐसे अनेक पाप कर्मों का बंध करता है ।।२७७०-२७७२।। __ कैसे मुनि धन्य हैं पाहारस्य निमित्तन नरकं यान्ति सप्तमम् । मत्स्यायदि सतो ननमाहारोनथसागरः ।।२७७३।। पूर्व कृतसपोभ्यासश्चानिवानः शिवाप्तये । पश्चाई तकषायो यो जिस्वासर्वान परीषहान् ।।७४।। अतषाविभवास्तीवान साधयेन्मरणोत्तमम् । धन्यःसएवलोकेऽस्मिनसायंतस्यतपोखिसम् ॥७५।।

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