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मूलाचार प्रदीप ]
( ४२३ )
[ दशम अधिकार है इन तेतीसों से संबंध रखना वा इनसे ममत्व रखना इनका तिरस्कार करना इनके निमित्त से रागद्वेष उत्पन्न करना तेतीस प्रासादनाएं बतलाई हैं इन आसाइनाओं का मैं रचमात्र भी नहीं लगने दूंगा ॥२७५१-२७५२॥
___ कैसे ध्यान पूर्वक हृदय में सल्लेखना धारण करनी चाहियेनिन्वनीमं च यत्किचित्सर्वनिन्दामि तहृदि । पहरणीयमकृत्यंयाहेतवगुरुसन्निधौ ।।२७५३।।
इत्याचम्यशुभध्यानैः कृत्वा सल्लेखना यतिः ॥२७५४।। अर्थ-- इस संसार में जो कुछ निंदनीय है, उसको मैं अपने हृदय में निदा करता हूं तथा जो गहीं करने योग्य दुष्कृत्य हैं उनको मैं गुरु के समीप में गर्हा करता हूं। इसप्रकार के ध्यान से अथवा और भी शुभध्यानों से अपने हृदय में कषायों की सल्लेखना करनी चाहिये और फिर उस मुनि का काय की सल्लेखना करनी चाहिये। ॥२७५३-२७५४॥
क्षपक शरीर को कैसे कृश करेंषष्टाष्टमादिपक्षकमासाथमशनः परः। तपोभेवद्विषभिश्चशोषयेतकमतो वपुः ।।२७५५॥
अर्थ-बेला तेला करके वा पंद्रह दिन वा एक महिने का उपवास करके तया और भी तपश्चरण के बारह भेदों को धारण करके अनुक्रम से अपने शरीर को कृश करना चाहिये ॥२७५५॥
किस क्रमसे क्षपक अन्नादिक का त्याग करता है-- ततस्त्यवत्याक्रमेणाग्नस्तोकरतोकेनधर्मधीः । गृह्णाति केवलं नीर धर्मध्यानसमाधये ।।२७५६।। परवाच क्याम्पानं च परित्यज्यकरोति सः । परलोकोत्तमार्थाप छपवासाभिरन्तरम् ।।५७॥
अर्थ-तवनंतर उस धर्मबुद्धि को धारण करनेवाले यति को धर्मघ्यान और समाधि की प्राप्ति के लिये थोड़ा थोड़ा करके अन्न का सर्वथा स्याग कर देना चाहिये
और केवल उष्ण जल रख लेना चाहिये । तदनंतर बह मुनि परलोक में उत्तम गति प्राप्त करने के लिये वा मोक्ष प्राप्त करने के लिये युक्तिपूर्वक जल पीने का भी त्याग कर देता है और फिर सवा के लिये उपवास धारण कर लेता है ॥२७५६-२७५७।।
किस विधि से क्षपक इन्द्रिय आदि का मुंडन करता हैमुण्डनवशमुण्डामा करोत्येषुसुयक्तितः । संकोच्येन्द्रियवाक्कायमनोऽवपरपंचसात् ।।२७५८।। स्वस्वाक्षविषयेष्वा प्रातः पंचखाल्मकान् । जिस्वा शवस्था स पंचेनियमुण्डानुकुलोबलात् ।।६।।