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मूलाधार प्रदीप ]
( ४२१ )
[ दशम अधिकार
अर्थ -- समस्त गुणों में मेरा
रखता,
दोन भावं भयं शोकं सोत्सुकत्वं कुचिन्तनम् । कालुष्यं कृत्स्नमुर्ध्यानंस्नेहं रत्यरतिद्वयम् ।।२७३८ ।। जुगुप्सादिकमन्यद्वा विशुद्धधा व्युत्सृजाम्यहम् । सर्वभूतदयाचितः शत्रु मित्रादिवजितः ।। २७३६|| ममत्वं निजबेहाथी जहामि सर्वथालिन् । निर्ममत्वं सदा चितेप्रकुर्वे त्रिजगत्स्वपि ॥। २७४० ॥ अनुराग हो, मैं किसी के साथ बैरभाव नहीं मैं राग को, कषायों के संबंध को द्वेष को हर्ष को दीनतारूप परिणामों को, भय, शोक को, उत्सुकता को, अशुभध्यान को, कलुषता को, सब तरह के दुध्यन को, स्नेह को, रति तथा अरति को, जुगुप्सा को तथा और भी कर्म जन्य जो आत्मा के विकार हैं, उन सबका मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक त्याग कर देता हूं। मैं अपने हृदय में समस्त जीवों के लिये दया धारण करता हूं, तथा सबसे शत्रुता वा मित्रता का त्याग करता हूं। मैं अपने शरीर से भी ममत्व का सर्वथा त्याग करता हूं, मैं तीनों लोकों के समस्त पदार्थों में निर्ममत्व धारण करता हूं ।।२७३७-२७४०।२
अपक किस प्रकार का आत्म-चितवन करता है
थाकालम्बनमेऽस्तुसाद्धं दृगादिसद्गुणं । सं बिना त्रिजगज्जालं सर्वद्रव्यंत्यजाम्यहम् ।।२७४१।। प्रात्मैव मे परं ज्ञानमात्मा क्षायिकवर्शनम् । श्रात्मा परमचारिप्रत्याख्यानं व निर्मलम् | २७४२ ॥ प्रात् सकलो योग श्रात्मैवमोक्षसाधनः । यतोऽगुणाः सन्ति विनात्मानं न जातुचित् । २७४३ ॥ एकratfar देही के उत्पद्यले विधेः । एका भ्रमति संसारे एकः शुद्धधति नोरनाः ।। २७४४॥ एको मे शाश्वतात्मा ज्ञामवर्शनलक्षणः । शेषा मेंगादयोभावा बाह्याः संयोगसम्भवाः ॥४५
अर्थ-ब मैं सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके साथ साथ एक आत्मा का ही श्राश्रय लेता हूं, उसके सिवाय तीनों लोकों में भरे हुए समस्त द्रव्यों का मैं त्याग करता हूं । मेरा यह आत्मा ही परम ज्ञान है, श्रात्मा ही क्षायिक सम्यग्दर्शन है, श्रात्मा ही परम चारित्र है और आत्मा ही परम निर्मल प्रत्याख्यान है । मेरा यह श्रात्मा ही समस्त योग रूप हैं और यही श्रात्मा मोक्ष का साधन है । क्योंकि आत्मा में जितने गुण हैं वा मोक्ष के कारणभूत जितने गुण हैं वे बिना आत्मा के कभी हो हो नहीं सकते हैं। यह प्राणी इस संसार में कर्म के निमित्त से अकेला ही भरता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही परिभ्रमण करता है और कर्म रहित होकर अकेला ही शुद्ध होता है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानस्वरूप यह मेरा एक आत्मा ही नित्य है, बाकी के शरीराविक जिसने मेरे बाह्य भाव हैं वे सब मुझसे भिन्न हैं और सब कर्मादिक के संयोग से उत्पन्न हुए हैं ।। २७४१ - २७४५।।