Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 464
________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४१६) [ दशम अधिकार में जलकर मरते हैं वा करोड़ों अनाचारों के कारण श्वास रोक कर मरते हैं, इसप्रकार जो दुर्मरण से मरते हैं, उनके जन्म-मरण-जरा आदि अनेक दुःखों के समूह निरंतर बढ़ते रहते हैं ।।२७२१-२७२३।। आचार्य क्षपक को बालबालमरण का स्वरूप उसके त्याग हेतु समझाते हुये पंडितभरण की प्रेरणा उद्व गभयसंक्लेशरुषिस्त्रिजगत्स्वपि । त्रिसस्थावर जीवेषु पराधीनतया त्वया ॥२७२४।। मरणानि ह्यनन्तानिबालबालाशुभानि च । अन्यः प्राप्तानि च सर्वरक्षार्बोधिदूरगैः॥२७२५।। अर्थ-हे क्षपक | इस ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक रूप तीनों लोकों में तथा त्रसस्थावर प्रादि अनेक जीव योनियों में पराधीन होकर उट्ठग भय और संक्लेश रूप परिणामों से अनंतबार अशुभ बालबालमरण किये हैं तथा इसीप्रकार रत्नत्रय से रहित और जीवों की रक्षा करने में अंधे ऐसे अन्य समस्त जीवों ने अनंतयार बालबालमरण किये हैं ।।२७२४-२७२५॥ क्षपक त्रियोगद्धि पूर्वक ४ आराधना को शुद्धि करता हैज्ञात्वेति क्षपकेह स्वं भूयस्वाखिलयत्नतः । पण्डितेनमुदायेनमुत्युघ्नपचभविष्यसि ।।२७२६।। इत्याचार्योपदेशेन योग्यस्थाने महादिक । समाधिसिद्धये युक्त्यासंस्तरं स प्रपद्यते ।।२७२७।। अर्थ-यही समझकर हे क्षपक तू प्रसन्न होकर प्रयल पूर्वक पंडितमरण से मर जिससे कि तेरा जन्ममरण सदा के लिये नष्ट हो जाय । इसप्रकार प्राचार्य का उपदेश सुनकर वह भपक अपनी समाधि धारण करने के लिये युक्तिपूर्वक किसी मठ आदि योग्य स्थान में अपने बनाये हुये सांथरे पर पहुंचता है ॥२७२६-२७२७।। क्षपक ४ आराधना की शुद्धि एवं धारण करने के लिये कैसा चितवन करता हैतदेवाराथनाशुद्धोश्चतुविधागादिकाः । मनोवाक्कायसंशुवधा कतुंमारभतेसुधीः ।।२७२८।। शंकादिवोषदूरस्थाः सद्गुणाष्टविभूषिताः । धर्मरत्नलनीमेस्तु विशुदिई ढापरा ।।२७२६।। सर्वज्ञध्वनिसम्भूतास्वांगपूर्वादिगोचरा । शुरुया भवतुमेशामाराधनाचारपूर्विका ।।२७३०|| त्रयोदशविधा पूर्णा प्रतः समितिगुप्तिभिः । सर्वः बोपातिगा चास्तुचारिबाराषनामम् ।।२७३१॥ समस्तेच्छामिरोधोत्यां तपः पाराषमापराम् । उप्रोनाल्या विषड्मेवां कुर्वहं कर्महानये ।।२७३२।। ___ अर्थ-तदनंतर वह बुद्धिमान मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक सम्यग्दर्शन आदि चारों प्रकार की प्राराधनाओं को शुद्धि करना प्रारंभ करता है। वह चितवन करता है कि शंकाविक दोषों से रहित तथा निःशंकित प्रादि माठों गुणों से सुशोभित

Loading...

Page Navigation
1 ... 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544