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मूलाचार प्रदीप ]
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[ दशम अधिकार के समय इन सबका त्याग कर देना चाहिये । क्योंकि ये सब जन्म मरणरूप संसार को बढ़ाने वाले हैं ॥२६६४-२६६६।।
कौन जीव देव दुर्गतियों में उत्पन्न होते हैंमरणेनष्टमुखीनाविराषितेसतिस्फुटम् । देवदुर्गतयोनूनंभवत्यात्रशुमाकरा: । २६६७॥
अर्थ-दष्ट बुद्धि को धारण करनेवाले जो लोग अपने मरण की विराधना कर देते हैं वे जीव महा पाप की खानि ऐसी देव दुर्गतियों में उत्पन्न होते हैं ।।२६६७॥
रत्नत्रय की प्राप्ति इस लोक में दुर्लभ है-- बोधिसम्यक्त्वमस्मन्तदुर्लभं भवकोटिभिः । मागमिष्यसि काहानन्तावुभवपतिः ।।२६६८॥
____ अर्थ-इस लोक में रत्नत्रय और सम्यक्त्व का प्राप्त होना अत्यंत दुर्लभ है, करोड़ों भवों में भी प्राप्त नहीं होता यदि प्राप्त होता है तो काललब्धि के अनुसार प्राप्त होता है। तथा नीच जन्मों की परम्परा अनंतबार प्राप्त होती चली आ रही है ।।२६६८।।
देव दुर्गति आदि क्या है, शिष्य ऐसा प्रश्न करता हैदेवदुर्गतयः काश्च का बोधिमरणं हगा। विनश्यतिमुमुक्षाकीदृशेन भवोभवेत् । २६९६॥ अनन्तः केनशिष्पेरणपृष्टः मूरिरितिस्फुटम् । उवाच देवदुर्गत्यारिक सर्व साहितम् ।।२७००॥
अर्थ-यहाँपर कोई शिष्य अपने आचार्य से पूछता है कि हे प्रभो ! वेद दुर्गति क्या है ? रत्नत्रय किसको कहते हैं ? मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनियोंका मरण फैसे हृदय से नष्ट हो जाता है जिससे कि उसको अनंत संसार की प्राप्ति होती है। इसके उत्तर में आचार्य उस शिष्य की इच्छानुसार देव दुर्गति आवि का स्वरूप कहते हैं ॥२६६९-२७००॥
देव दुर्गति एवं उसमें उत्पन्न जीव का स्वरूपकंदर्पमाभियोग्यं च कैल्वियं किल्बिषाकरम् । स्वमोहत्वतर्थवासुरम्वमेतः कुलक्षणः ॥२७०१॥ सम्पन्नावुद्धिमोमृत्वागच्छन्ति देवदुर्गतिः । कंबधाइति प्रोक्ता नीषयोमिभवाविवि ।।२७०२।।
अर्थ-जो मूर्ख कंवर्ष जाति के कुलक्षणों को अभियोग्य जाति के कुलमानों को पापकी खानि ऐसे किल्विष रूप कुलक्षणोंको स्वमोहत्य और असुर प कुलक्षणोंको धारण कर मरते हैं वे देव दुर्गतिमें उत्पन्न होते हैं । स्वर्गों में वर्ष आदि भीच मोनि में उत्पन्न होनेवाले जो वेव हैं उन्हीं की गति को देव दुर्गति कहते हैं ।२७०१-२००२॥