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मूलाधार प्रदीप ]
[ দাশ ঘিাৰ कैसे पाखण्ष्टी साधु कंदर्पभय क्रिया करनेवाले देव होते हैप्रसत्यं यो व यन् हास्यसरागमनाविकान् । कन्दपोद्दीपकाल्लोकेमंदपर तिरंजितः ।। २७०३॥ कम्वाःसन्सिदेवा ये नग्नाचार्याः सुरालये । कवर्षकमभिस्तेषु पद्यतेसतस्समः ॥२७०४।।
अर्थ- ओ साधु होकर भी असत्य वचन बोलते हैं, हंसो ठट्ठा के वचन कहते हैं, राग बढ़ाने वाले वचन कहते हैं, कामदेव को बढ़ाने वाले उत्तेजित करनेवाले वचन कहते हैं और जो कामसेवन में लीन हो जाते हैं, ऐसे जीव मरकर स्वर्ग में कंदपं जाति के देव होते हैं वहां पर भी वे काम को बढ़ाने वाली क्रियाएं ही करते रहते हैं । इस प्रकार कंदर्पमय क्रियाओं के करने से वे पाखंडी स्वर्ग में भी बसे हो कंपमय क्रियाएं करनेवाले होते हैं। ऐसे देवों को नानाचार्य भी कहते हैं ॥२७०३-२७०४।।
कैसे साधु वाहन जाति के देव बनते हैंमंत्रतंत्राविकर्माणि यो विषते बहनि च । ज्योतिएकमेषजावोनिपराकार्याशुभानि च ॥२७०५।। हास्यकौतूहलाचीनि करोतिस्वेच्छया वदेत् । हस्त्यावधाहनेष्वत्र जायते सोमरोषमः ।।२७०६।।
अर्थ-जो मनुष्य साधू होकर भी मंत्र तंत्र आदि अनेक कार्यों को करता है, ज्योतिष्क या वैद्यक करता है तथा ऐसे ही ऐसे और भी बहुत से अशुभ कार्य करता है, हंसी करता है, कौतूहल तमाशे प्रादि करता है. और इच्छानुसार चाहे जो बोलता है, वह मर कर हाथी, घोड़ा प्रावि बनने वाले वाहन जाति के नोच देवों में उत्पन्न होता है ।२७०५-२७०६॥
कैसा आचरण करने से माधु मरकर किल्बिष जाति के देवों में उत्पन्न होता हैतीर्थकृता व संघस्य चत्यचैत्यालयस्य च । प्रागमस्याविनीतो यः प्रत्पनीक: सुमियाम् १२७०७। मायावी किल्विषाकान्तः किल्विषादि कुकर्मभिः । स किल्विषसुरो नीचो भवेकिल्विष मातिषु ।।
अर्थ- जो तीथंकरों की अविनय करता है, संघ की अविनय करता है, चैत्य चैत्यालयों की प्रविनय करता है, प्रागम की. प्रविनय करता है, धर्मात्माओं के प्रतिफल रहता है, जो मायाचारी है और महापापी है वह अपने महापापों के कारण किल्विष जाति के देवों में नीच किस्विष देव होता है ॥२७०७-२७०८॥
कैसे माधु मरकर नीच व मोह जाति में उत्पन होते हैंउन्मार्गदेशको योऽत्र जिनमागविनाशकः । सन्मार्गाविपरीतोऽत्र दृष्टहोनः कुमागंगः ।।२७०६।। मिभ्यामायादिमोहेन मोयनमोहपीडितः । जायते स स्वमोहे स्वभंजामरजातिषु ॥२७१०॥