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मूलाचार प्रदीप]
( ४११)
[ दशम अधिकार १७ प्रकार के सारण पिस लाया? इमानि येहिनांसप्तदशोक्तानिलिमागमे । सद्गलीता कहुं रिणमरणानि गणेशिना ।।२६६६।।
अर्थ-इसप्रकार भगवान गणघरदेव ने अपने जिनागम में प्राणियों को सबगति और प्रसद्गति देनेवाले ये सत्रह प्रकार के मरण बतलाये हैं ॥२६६६॥
आवीघिमरण का स्वरूपययावधी जलौघाना वीषयः सथमं प्रति । उद्ध योज पतत्रवविलीयन्तप्तयांगिनाम् ।। २६७।। उद्भ,योद्ध यकर्मायुः पुद्गलागषु यः क्षयः । रसनांप्रत्यहं शेयमावोधिमरणं हि तत् ।।२६७१३॥
अर्थ-जिसप्रकार समुद्र में पानी के समूह को लहरें समय-समय पर उठती हैं और उठ-उठकर उसी में लीन हो जाती हैं उसीप्रकार संसार जोबों का प्रायुक्रर्म प्रत्येक समय में उदय होता रहता है और अपना रस देकर खिर जाता है, इसको प्रावीचिमरण कहते हैं। यह प्राचीधिमरण प्रतिदिन प्रति समय होता रहता है ॥२६७०. २६७१॥
भव मरण एवं अवधिमरण का स्वरूपभुज्यमानायुषः सो योऽन्तिमेसमयेभुवि । प्राणप्पागो हि तद्विसिमरणं सपासपम् ।।२६७२।। प्रकृत्यायं श्चतुविषयवृशःप्राम्भो मृतः । यस्तस्य तावीर्यच्चावास्यंमरणं हि तत् ।।२६७३॥
अर्थ-जो मनुष्य अपनी आयु को भोगकर अंतिम समय में प्राण त्याग कर देता है उसको भवमरण कहते हैं । इस जीव ने पहले भव में जैसे प्रकृति स्थिति प्रावि चारों प्रकार के कर्मों का बंध कर मरण किया था यदि वैसे ही कर्मोका रंध कर मरण करे तो उसको अवधिमरण कहते हैं ।।२६७२-२६७३॥
आधत मरण एवं सशल्य मरण का स्वरूपप्राक्तनास्स्वभवावंषरन्यावश्चतुर्विधः । प्रत्याध मलिनुराधम्ममरण हि तत् ।।२६७४।। मायामिथ्यानिदानाय : शल्यः माईकषापिरणाम् । यत्प्राणमोचनं निय' सशल्पमरणं हि तत् ॥
अर्थ-पहले भव में जैसे प्रकृति स्थिति प्रादि कर्मों का बंध किया या उससे भिन्न प्रकृति स्थिति माधि कर्म प्रकृतियों का बंध कर जो मरण करता है उस मरणको प्रायंत मरण कहते हैं । कषायों को धारण करनेवाले जीव माया, मिम्मा, निशन इन तीनों शल्यों के साथ-साथ जो प्राण त्याग करते हैं उसको निच सशल्यमरण कहते है। ॥२६७४-२६७५॥