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मूलाचार प्रदीप]
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[ অঞ্চম স্থগ্ৰিকৰ पूर्ण शक्ति से उपसर्ग और परीषड़ों को सहन करते हैं, अपने मन में रंधमात्र भी खेद उत्पन्न नहीं करते ॥२४५६-२४५७।।
___ अन्तरंग तपों को कौन मुनि धारण करने में समर्थ होते हैंइति पाहातपोधोरमाचरम्तस्तपोषनाः । प्रायश्चित्सावि सर्वेषां षडन्सस्तपसा कमात् ।।२४५८ ।। आरोहन्ति परां कोटि निष्प्रमादा जितेन्द्रियाः । हिधारत्नत्रयाशक्ताः बाह्यान्सः संगदूरगाः ।।६।।
अर्थ-व्यवहार निश्चय दोनों प्रकार के रत्नत्रय को धारण करने में लोन रहनेवाले, बाह्य, अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह से सर्वथा हर तथा जितेन्द्रिय और प्रभाव रहित के मुनिराज ऊपर लिखे अनुसार बाह्य घोर तपश्चरणों को धारण करते हुए भी प्रायश्चित्त आदि छहों प्रकार के समस्त अंतरंग तपश्चरणों को अनुक्रम से सोंस्कृष्ट रूपसे धारण करते हैं ॥२४५८-२४५६॥
घे मुनिराज दुर्जनों के दुष्ट वचनों से क्षुब्ध नहीं होतेमिथ्याग्दु नारोनादुर्वाक्यावन्तकोपमात् । ताहनासर्जनाधाताधान्ति क्षोभं न ते क्वचित् ।।६।।
अर्थ-वे मुनिराज यमराज के समान मिथ्यादृष्टि और दुष्ट मनुष्यों के दुर्वचनों से उनकी ताड़ना से, तर्जना से, वा उनकी मार से कभी भी क्षुब्ध नहीं होते हैं ॥२४६०॥
इन्द्रियों को वैराग्य जाल से बांधत हैंपंचाक्षविषयाकांक्षाविश्वानर्यलनी नणाम् । या तो वैराग्यपानतेवघ्नन्तिमगीमिय ।।२४६१।।
अर्थ-जिसप्रकार किसी जाल से हिरण को बांध लेते हैं उसी प्रकार वे मुनिराज समस्त अनर्थों को खानि ऐसो मनुष्यों की पांचों इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाली विषयों की आकांक्षा को अपने वैराग्य रूपी जाल से बहुत शीघ्र बांध लेते हैं । ॥२४६१॥
सपशुद्धि का अधिकारी कौन होता हैइत्यासन्यमहाधोरोग्रतपश्चरितात्मनाम् । जिताक्षाणां सपः शुद्धि केवलं विद्यतेनघा ॥२४६२।।
अधं-जो मुनिराज इनके सिवाय और भी महा घोर और उग्र तपश्चरणों को धारण करते हैं तथा समस्त इन्द्रियों को जीतते हैं, उन्हीं मुनियों के पापरहित निर्दोष तपःशुद्धि होती है ।।२४६२।।
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