________________
मूलाचार प्रदीप ]
( ३६३ )
[ नवम अधिकार भिक्षाशुद्धि धारण करने की प्रेरणाभिक्षाशुद्धि सुचर्याय धूमांगारमलोजिझसाम् । प्रागुक्त सोषातीतां कुर्वन्तु मुमुक्षवः ॥२५५६।।
अर्थ-प्रतएव मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को अपनी चर्या के लिये पहले कहे हुये समस्त दोषों से रहित तथा घूप अंगार प्रादि दोषों से रहित भिक्षाशुद्धि धारण करनी चाहिये ॥२५५९॥
जुगुप्सा का स्वरूप एवं अतिचारों की शुद्धि की प्रेरणाजुगुप्सा लौकिकी बाह्या व्रतभंगादिजापरा । लोकोसरा जुगुप्सात स्त्रिरत्नशुद्धिहामिना ।।२५६०॥ यतातिचारसंशुशिः प्रायश्चित्तादिनिन्दमः । कर्तव्यास्वोत्तमाचारलोकनिन्दाविहानये ॥२५६१॥
अर्थ-इस संसार में लौकिक घृणा तो बाह्य जुगुप्सा है व्रतों के भंग होने से उत्पन्न होनेवाली घृणा अंतरंग जुगुप्सा है और रत्नत्रय की शुद्धि को हानि होना लोकोतर जुगुप्सा है। मुनियों को लोक निंदा दूर करने के लिये प्रायश्चित्त धारण कर आत्मनिदा कर तथा उत्तम आचरण पालन कर अपने व्रतों में लगे हुए मसिचारों को शुद्धि करनी चाहिये ।।२५६०-२५६१॥
लोकोत्तर निंदों के त्याग को प्ररणाशंकादीन्दूरतस्त्यक्त्या शुद्धि रस्मत्रये पराम् । कृरवा लोकोत्तरानिम्दाहेयासंसारदिनी ॥२५६२।।
अर्थ-मुनियों को शंकाविक दोषों का दूर से ही त्याग कर लेना चाहिये और रत्नश्रय की परम विशुद्धि धारण कर संसार को बढ़ाने वाली लोकोत्तर निदा का भी सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये ॥२५६२॥
मुनिको कैसा क्षेत्र छोड़ना चाहियेयत्रोत्पत्तिः कषायाणायान्तिस्वखानिविक्रियाम् । दुर्जनाभक्तिहीनाश्वसन्स्युपद्रवणायः ।।२५६३॥ जायन्तेद्वेषरागाधाः विघ्नाध्यानाविफर्मणाम् । प्रतभंगश्चलं चित्तं तरक्षेत्र वर्जयेद्यतिः ॥२५६४।।
अर्थ-जिस क्षेत्र में कषायों की उत्पत्ति हो, अपनो इन्मियां प्रबल हो जाय वा विकृत हो जाय जहाँपर दुष्ट और भक्तिहीन मनुष्य रहते हों, जहांपर अनेक उपद्रव होते रहते हों, जहांपर रागद्वष प्रादि दोष उत्पन्न होते रहते हों, जहांपर ध्यान अध्ययन प्रादि कार्यों में विघ्न उपस्थित होते हों, महापर व्रतों का भंग होता हो और जहांपर चित्त चंचल हो जाता हो ऐसा क्षेत्र मुनियों को छोड़ देना चाहिये ॥२५६३२५६४॥