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मूलाचार प्रदीप]
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[ नवम अधिकार निरंकुश होता हुआ घूमता है । ऐसा मुनि स्वयं भी दुर्गति में जाता है और अन्य जीवों को भी दुर्गति में पहुंचाता है ॥२५७८-२५८०।।
कैसा मुनि स्वपर की प्रात्मा को नष्ट करता हैप्राचार्यस्वं नयतेस्यस्पालानन मः जिनागमम् । स कुत्सितोपदेशश्चात्मानं परं विनाशयेत् ।।१।।
प्रर्थ-जो मुनि श्री जिनागम को तो जानता नहीं और आचार्य बन बैठता है वह मुनि अपने निद्य उपदेश से अपने प्रात्मा को भी नष्ट करता है और अन्य जीवों को भी नष्ट करता है ।।२५८१॥
हेतु पूर्वक अहंकार त्यागने का उपदेशवर्षादिगणनाबाहं सर्व ज्येष्ठोत्र दोक्षया । मत्सोन्ये लघवोहीतिगर्वः कार्यों न संयतैः ।२५८२।। यतो वर्षाणिगण्यन्ते न मुक्तिसाधनेसताम् । केचिदन्तर्मुहूर्तेन गता मोक्षं वृद्धव्रताः ।।२५८३।।
अर्थ-"मैं इतने वर्षका बोक्षित हूं अतएव मैं इन सब मुनियों में बड़ा हूं, ये सब मुनि दीक्षा में मुझसे छोटे हैं" इसप्रकार का अभिमान मुनियोंको कभी नहीं करना चाहिये । क्योंकि मोक्षको सिद्ध करने के लिये सज्जन पुरुष वर्षोंकी गिनती नहीं करते। अपने व्रतों को दृढ़ता के साथ पालन करनेवाले बहुत से मुनि ऐसे हो गये हैं जो अंतमुहूर्त में हो मोक्ष चले गये हैं ॥२५८२-२५८३॥
जीव के कर्मबन्ध का कारण-- रागपालमोहावीनिष्टोयोगीतिदुरः । करोति कर्मणा बन्धं कषायःसहदेहिनाम् ॥२५८४।। जीवस्यपरिणामेनारणवः परिणमन्ति नुः । कर्मत्वेन स्वतोनांगो तन्मयत्यं प्रपद्यते ॥२५८५।।
अर्थ-राग'ष इन्द्रियां और मोहादिक में लगे हुए दुर्धर मन-वचन-काय के योग कषायों का संबंध पाकर जीवों के कर्मों का बंध करते हैं। तीनों लोकों में भरे हुये कर्म परमाणु जीवों के परिणामों को निमित्त पाकर जीवों के कर्मरूप परिणित हो जाते हैं । यह आत्मा बिना योग और बिना कषायों के स्वयं कर्मरूप परिणित नहीं होता ॥२५८४-२५८५॥
कैसी प्रात्मा कर्मबन्ध नहीं करती एव संसार से पार होती हैशामचारित्रसम्पन्नः सयानाध्ययने रतः । निष्कषायः स्पिरात्मानकर्मबन्धकरोति न ।।२५८६।। किन्तुसंवरपोतेन तपसाखिलकर्मणाम् । विधायनिगरां ध्यानी तरत्याशुभवाम्बुधिम् ।।२५८७।।
अर्थ-जो आत्मा सम्यग्ज्ञान और सम्याचारित्र से सुशोभित है, श्रेष्ठ ध्यान
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