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मूलाचार प्रदीप]
( ३९७ )
[ नवम अधिकार और अध्ययन में लीन है, कवायरहित है और स्थिर है अर्थात् मन-वचन-काय के योगों से रहित है वह प्रात्मा कभी कर्मों का बंध नहीं कर सकता। किंतु ऐसा कषायरहित स्थिर ध्यानी प्रास्मा संवररूपी जहाज पर चढ़कर तपश्चरण के द्वारा समस्त कर्मो की निर्जरा सा है और गोत्र ही संसारकली मासे पार हो जाता है ॥२५८६-२५८७॥
विनय पूर्वक स्वाध्याय मादि करने का फलकुर्वनस्वाध्यायमात्मज पचाक्षसंवतोभवेत् । त्रिगुप्तश्चकचित्तोत्रविनयमनिरामयः ।।२५८८।।
अर्थ-प्रात्मा के स्वरूप को जानने वाला जो मुनि विनय के साथ स्वाध्याय करता है वह पांचों इन्द्रियों को वश में करता है, तीनों गुप्तियों को पालन करता है और एकाग्रचित्त होने के कारण कर्मों के आय से रहित हो जाता है ।।२५८८।।
तीनों काल में स्वाध्याय ही सर्वश्रेष्ठ तप है-- विषड्मेवातपोभ्योपिस्वाध्यायेन ममं तपः । न भूतं परमं नास्ति न भविष्यतिमोक्षवम् ।।२५८६॥
अर्थ-बारह प्रकार के तपश्चरण में भी स्वाध्याय के समान अन्य कोई सपचरण उत्कृष्ट और मोक्ष देनेवाला न आज तक हुआ है न है और न आगे कभी हो सकता है ॥२५८६।।
सिद्धान्त शास्त्रों के अध्ययन का फलससूचा च यथा सूचिन नश्यतिप्रमावतः । तथा ससूत्रएवारमा जानीरस्मत्रयांकितः ।।२५६।।
प्रर्य-जिसप्रकार सूत्रसहित (डोरा सहित) सुई प्रमाव के कारण नष्ट नहीं होती, खोती नहीं उसीप्रकार सूत्रसहित सूत्रों का वा सिद्धांतशास्त्रों का स्वाध्याय करने बाला ज्ञानी प्रास्मा रत्नत्रय से सुशोभित होता है ।।२५६०।।
निद्रा के दोष एवं उसे जीतने की प्रेरणायामेम जयनिता स्वं पसो निद्रा ह्यचेतनम् । कृत्वावराक्षासोबाशुणिलेजनंगतक्रियम् ॥२४६१॥ सथानिद्रावाःप्राणीलावस्यखामंजसा । प्रगम्मगमनं कुर्याद्विश्वपापेषु बसते १२५६२॥
अर्थ-हे मुने ! तू प्रयत्नपूर्वक निद्रा को जीत क्योंकि यह निद्रा राक्षसी के समान है । राक्षसी जिसप्रकार मनुष्यों को मारकर खा जातो है उसीप्रकार यह निद्रा भी मनुष्य को अचेतन के समान कियारहित बनाकर निगल जाती है । इसके सिवाय इस निद्रा के वशीभूत हुए प्राणी अभक्ष्य भक्षण करते हैं, अगम्य गमन करते हैं और समस्त पापों में प्रवृत्ति करते हैं ॥२५६१-२५९२॥