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मूलाचार प्रदीप]
( ४०५)
[ नवम भधिकार प्रकार खड़े होना चाहिये, कैसे सोना चाहिये, कैसे बैठना चाहिये, कसे आहार लेना चाहिये, कैसे बोलना शहिये, कैसे विहार करना चाहिये, किसप्रकार प्राचरण पालन करना चाहिये, किसप्रकार बंदमा प्रतिक्रमण आदि क्रियाकर्म करना चाहिये और किस प्रकार अशुभ कमोसे दूर रहना चाहिये ॥२६३५-२६३६॥
मुनिराज को यरनाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने की प्रेरणाखरेत्सर्वप्रयत्नेनतिष्ठेचत्नेन मतले । यत्नेन प्रासुकेवघ्याच्छयनं च वृक्षासनम् ।।२६३७॥
भिक्षाशुवधा जोस वारसमित्या यत्नतो भजेत् ।।२६३८।। प्रयत्लेन क्रियाकर्म करोति सफलं सवा । इति पापं न बध्नातिक्षपयेत्प्राक्तनाशुभम् ।।२६३६॥
अर्थ-तो इसका उत्तर यह है कि मुनियों को यलाचार पूर्वक अपनी प्रवृत्ति करनी चाहिये, यत्नाचार पूर्वक पृथिवीपर बैठना चाहिये, यलाचार पूर्वक प्रासुक स्थान पर सोना चाहिये और प्रासुक स्थान पर ही दृढ़ आसन से बैठना चाहिये । इसीप्रकार उनको भिक्षा भी शुद्धता पूर्वक प्रहण करनी चाहिये, भाषासमिति पूर्वक वचन बोलने चाहिये और बिहार इसिमिति पूर्वक दिन में ही यत्नाचार पूर्वक करना चाहिये । इसो प्रकार मुनियों को यत्नाचार पूर्वक ही वंदना प्रतिक्रमण आदि सब क्रियाकर्म सदा करते रहना चाहिये । इसप्रकार करने से वह मुनि पापों से लिप्त कभी नहीं होता कितु पहले के अशुभ कर्मों को नाश ही करता है ॥२६३७-२६३६॥
परम समयसार को पालने का फलइति कथितमदोषं ये घरग्यात्मशक्त्या परमसमयसारं प्रथमाप्तः प्रणीतम् । त्रिभुवनपति भूति सुष्ठविकायभुक्त्वा सालघरणयोगात्स्युश्च ते मुक्तिनाथाः ।।२६४०।।
अर्थ--इसप्रकार भगवान जिनेन्द्र देवके द्वारा कहे हुए इस परम समयसार को जो मुनि अपनी शक्ति के अनुसार निर्दोष रीति से पालन करते हैं, वे पूर्ण चारित्र को धारण करने के कारण भगवान जिनेन्द्रदेव को विभूति को प्राप्त करते हैं प्रौर मंतमें मोक्षलक्ष्मी के स्वामी होते हैं ॥२६४०॥
पुनः परम समयसार को पालने की प्रेरणासर्वासातहरंविशुद्धजनकं पापारिनाशंकरं स्थर्मोक्षकनिबंधनंसुविमलसंसारतापापहम् । धोतीर्थस्वरभाषितमुनियरः सेव्यं सवा पत्नतः सेवम्वनिपुणाःपरंसमपसारास्मंशिवारस्फुटम् ॥
मर्थ यह ऊपर कहा हुआ परम समयसार समस्त दुःखों को दूर करनेवाला