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मूलाचार प्रदीप]
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[ नवम अधिकार ब्रह्माचर्य के घात करनेवाले १० कारणविपुलाहारसेवा पपुलारिशोधनम् । गंधमाल्याविकावानंगीतवाद्याबिसंभूतिः ।।२६१८।। सरगचित्रशालाबोकोमलेशयनासनम् । स्त्रोसंसर्गोवस्त्राविग्रहणंभोगसिद्धये ।।२६१९॥ पूर्वसेवितभोगानुस्मरणस्वस्थमानसे । इन्द्रियार्यरतो हा सर्वष्ठरस सेवनम् ।।२६२०॥ इमानब्रह्महेतून पो दशवोषांस्त्यजेत्सदा । बुढवतो यतिः सोऽत्र भवत्येवनयापरः ।।२६२१॥
अर्थ-बहुत सा पाहार खाना, अपने शरीर को तथा मुख को स्वच्छ शुद्ध रखना, गंध लगाना वा माला पहनना, गीत बाजे सुनना, राग को उत्पन्न करनेवाली
और स्त्री पुरुषों के चित्रों से सुशोभित भवन में कोमल शय्यापर सोना या बैठना, स्त्रियों की संगति करना, भोग भोगने के लिये धन और वस्त्रादिक का ग्रहण करना, पहले भोगे हुए भोगों का अपने मनमें स्मरण करना, इन्द्रियों के विषयों में रत होनेकी लालसा रखना और समस्त रसों का सेवन करना, ये दश ब्रह्मचर्य को घात करने के कारण हैं । जो मुनि इन दशों दोषोंका त्याग कर देता है वहीं दढ़वती कहलाता है, अन्य नहीं ॥२६१८-२६२१॥
द्विविघ परिग्रह त्याग की प्रेरणामोहाविककषापागतात्यंगोपरिपहान् । अस्माठाह्याम्सरा: संगाः सर्वत्याज्याः शिवापिभिः ।।
___ अर्ध-यह जीव मोह कषाय और इन्द्रिय प्रादि के द्वारा परिग्रहों को ग्रहण करता है इसलिये मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को बाह्य और अभ्यंतर सब तरह के परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिये ॥२६२२॥
श्रमण का स्वरूप एवं उनके भेदमिस्संगोऽत्रनिरारम्भो भिक्षाचर्याशुभाशयः । सद्ध्यानरतएकाकीगुणातयः श्रमणो भवेत् ।।२३॥ नाम्नास्थापनया प्रम्यभाषाभ्यां श्रमणस्य च । चतुविधोऽवनिक्षेपोगुणिभिर्गुणसम्भवः ॥२६२४॥
अर्थ-जो मुनि समस्त परिग्रहों से रहित है, समस्त प्रारम्भों से रहित है, भिक्षार्थ चर्या करने के लिये जिसके हृदय में शुद्धता है, जो श्रेष्ठ ध्यानमें लोन रहता है, एकाकी है। प्रात्माको सबसे भिन्न समझता है और अनेक गुणों से सुशोभित है उसीको श्रमण कहते हैं । गुणी पुरुष नाम स्थापना द्रव्य और भाव निक्षेप के भेव से अपने-अपने गुणों के अनुसार इन श्रमरणों के चार मेव बतलाते हैं ॥२६२३-२६२४॥
भाव श्रमणपना ही मोक्ष को प्राप्त करते हैंभाषश्रमणएकोऽत्र गुवरानत्रयांकितः । विश्वाम्युझ्यसौल्यावीन् मुमरवास्यान्मुक्तिवल्लभः ॥२५॥