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सार प्रदीप ]
( ३६२ )
[ नवम अधिकार
अर्थ — जो मूर्ख प्रतिदिन अधःकर्म जन्य आहार को ग्रहण करता है उसे यदि किसी दिन प्राक आहार भी मिल जाय तो भी हृदय से वह कर्मों का बंध करनेवाला ही समझा जाता है । इसीप्रकार यदि कोई मुनि कृत कारित अनुमोदना से रहित शुद्ध आहार को ढूंढता है और देवयोग से उसे अधः कर्म जन्य श्राहार मिल जाता है तो भी उसे हृदय से शुद्ध ही समझना चाहिये ।। २५५२-२५५३ ।।
शुद्धको ना
मूलोतरगुणेष्वत्र भिक्षाचयविताजिनैः । प्रवरा तां बिना विश्वे ते कृताः स्युनिरर्थकाः । २५५४ ।।
अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव के समस्त मूलगुण और उत्तरगुणों में भिक्षा के लिये चर्या करना हो उत्तमगुण माना जाता है, उस शुद्ध भिक्षाचर्या के बिना बाकी के समस्त गुण निरर्थक ही बतलाये हैं ।। २५५४ ।।
सदोष आहार का निषेध -
प्रत्यहं वरमाहारो भुक्तो दोषासिंगः सताम् । पक्षमासोपवासादिपाश्णदोषो न च ।। २५५५ ।। अर्थ- सज्जनों को दोषरहित प्रतिदिन प्रहार कर लेना अच्छा परंतु पन्द्रह दिन वा एक महीने के उपवास के बाद पारणा के दिन सदोष आहार लेना अच्छा नहीं ।। २५५५ ।।
श्रमदान की महिमा -
मृत्याविभयभीतानां सर्वयाखिलदेहिनाम् । स्वात्यभयवानं यस्तस्यैव सकला गुणाः ।। २५५६ ।। अर्थ- जो मुनि मृत्यु के भयसे भयभीत हुए समस्त प्राणियों को अभय दान देता है, उसी के समस्त गुण अपने आप श्रा जाते हैं ।। २५५६ ।।
आचार्य रूपी वैद्य ही मुनिरूपी रोगों का इलाज करते हैं
प्राचार्यों ज्ञानवान्वयः शिष्यो रोगीविरक्तषान् । चयौधयं च निष्पापं क्षेत्र सावद्यवजितम् ।। ५७ ।। यात्राः साह्यकर्त्ताराः परवानया । सामग्रधाम मंत्यक्तं कुर्यात्सूरिमुनि व्रतम् ॥१२५५८६ ।। अर्थ -- संघ में प्राचार्य तो महाज्ञानी बंद्य हैं, संसार से विरक्त हुआ शिष्य रोगी है, पापरहित चर्या ही औषधि है, पापरहित स्थान हो उसके लिये योग्य क्षेत्र है और वैयावृत्य करनेवाले उसके सहायक हैं। ये आचार्यरूपी वैद्य इस सामग्री से उस रोगो मुनिको कर्मरूपी रोग को नष्ट कर शीघ्र ही निरोग सिद्ध बना देते हैं ।। २५५७२५५८ ।।