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मूलाधार प्रदीप]
[नवम अधिकार आतापन प्रावि कठिन-कठिन योग धारण करें, चाहे श्रेष्ठ ध्यान और अध्ययन आदि शुभ कार्यों में लगे रहें और चाहे वेला सेला करें, पन्द्रह दिन बा महीने भरका उपवास करें, परन्तु उनके सदा पापकर्मो का ही आलब होता रहता है, इसलिये उनका सब तपश्चरण निरर्थक हो समझना चाहिये ॥२५३६-२५४०॥
पंच पापके त्याग बिना वस्त्र त्याग निष्फलमपोसजति रोद्राहिः कंचुकं न विषं तया । कश्चित्तास्त्यजेवस्त्रपंचसूना न मंषोः ।।२५४१।।
अर्थ-जिसप्रकार दुष्ट सर्प कांचली को छोड़ देता परंतु विषको नहीं छोड़ता उसीप्रकार कोई-कोई साधु वस्त्रों का त्याग तो कर देते हैं परंतु वे मूर्ख पंचपापों का स्याग नहीं करते ॥२५४१॥
हिमा करनेवाले पंच पाप का निर्देशउधूखलस्तथा चुल्होप्रेषरणी च प्रमाणिनी । उचकुम्भः इमा:पंचसूना। सत्त्वक्षयंकराः ॥२५४२॥
अर्थ-चक्की, ऊखली, चूली, बुहारी और पानो रखने का परंडा ये पांच अनेक जीवों की हिंसा करनेवाले पंछ पाप कहलाते हैं ।।२५४२।।
इन पापों की अनुमोदनादि करनेवाले को दीक्षा व्यर्थ है--- प्रासुप्रवर्ततेयोऽधीः कृतकारितमोवनः । सुस्वादानायतस्याहो वृथादीक्षाबुरात्मनः ॥२५४३।।
अर्थ-जो मुख मनि अपने स्वादिष्ट प्रश्न के लिये कृत कारित अनुमोदना से इन पंचपापों में अपनी प्रवृत्ति करते हैं, उन दुष्टों की दीक्षा लेना भी व्यर्थ समझना चाहिये ॥२५४३॥
कौन श्रावक उभय लोक में भ्रष्ट माना जाता हैयोषःकर्मादिनिष्पन्न भुपतेन्मरसनांधधीः । जाडोविराधना करवा षड्जीवाना व घातनम् ।।४।। श्रावक: सोधमोजातः पापारम्भप्रपर्तनात् । उभयभ्रष्टतामाप्तोवाम पूजादिवर्जनात् ॥२५४५।।
अर्थ--जिह्वा इन्द्रिय को लंपटता के कारण अंधा हुआ जो मूर्ख श्रावक हों प्रकार के जीवों की विराधना करके वा छहों प्रकार के जीवों का घात करके अधःकर्म से उत्पन्न हुए अन्नको भक्षण करता है वह पापारंभ में प्रवृत्ति करने के कारण अधम कहलाता है और उस द्रष्यसे यह दान पूजा करने का भी अधिकारी नहीं रहता इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनों लोकों से भ्रष्ट गिना जाता है ॥२५४४-२५४५॥