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मूलाचार प्रदीप]
( ३८६)
[ नवम अधिकार अप्रासुक आहार ग्रहण करनेवाला मुनि मोक्ष का इच्छुक नहीं वह अघम हैहत्वाप्राणान् बहन कुर्यादात्मनो यो महाबलम् । अप्रासुकं सुखाकाशी मोक्षाकांक्षी न स चित् ।। एकहिनिमगावींश्च सिंहल्याप्रादिकोत्र यः। निहत्य खावयेत्पापी नौष स कम्यते यदि ।।२५३५। यो मुनिः प्रत्यहं हत्वा वहूंश्वस्थावरवासान् । भक्षयेत्स कथंपाची नोयो वा नाघमोभवेत् ॥३६।।
अर्थ- जिसप्रकार कोई मनुष्य अनेक प्राणियों को मारकर अपने को महाबली प्रगट करता है उसीप्रकार अप्रासुक पदार्थों को ग्रहण करनेवाला मुनि सुख को चाहने वाला कहा जाता है, वह मोक्षको चाहने वाला कभी नहीं कहा जा सकता। देखो सिंह बाघ प्रावि जीव एक दो तीन चार आदि हिरण वा अन्य पशुओं को मारकर खा जाता है इसलिये वह पापी और नीच कहलाते हैं । इसीप्रकार जो मुनि बिना शुद्ध किया हुआ नाहार हम EFFER है सदि अनेक प्रस, स्थावर जीवों की हिंसा कर प्राहार ग्रहण करता है, वह क्यों नहीं पापी, नीच और प्रधम कहलावेगा अर्थात् अवश्य कहलावेगा। ॥२५३४-२५३६॥
आरम्भ से होने वाले दोषप्रारंभाजीवराशोनों वघोवधावघंमहत् । प्रधादयोभवेत्वस्यदुर्गतीतीवकुःसादः ।।२५३७॥
अर्थ-और देखो आरंभ करने से जीवराशियों की हिंसा होती है, हिंसा होने से महापाप उत्पन्न होता है और उस महापाप से अपने ही प्रात्मा को नरकादिक दुर्गतियों में तीन दुःख देनेवाला फर्मबंध होता है ।।२५३७॥
हिंसा त्याग की प्रेरणातस्मायास्मा न हंतथ्यः स्वयं स्वेनवनाविना । सेनप्राणिवधोनित्यमोक्तम्पोयत्नतोवर्षः ॥२५३८॥
अर्थ--इसलिये बुद्धिमानों को जीवों की हिंसा करके अपने मात्मा को हिंसा नहीं करनी चाहिये और इसके लिये प्रयत्न पूर्वक सदा के लिये प्राणियों की हिंसा का त्याग कर देना चाहिये ।।२५३८।।
___ अधःकमं दोषयुक्त आहार करनेवाले मुनि के तपश्चरण निरर्थक हैये स्थानमौनवीरासनाचा हि दुष्कराः कृताः। मातापनावियोगाश्चसध्यानाध्ययनारया Men षष्ठाष्टमाविमासान्ताउपत्रासापाचावात् । स निरर्थकानूनमाकमिसेविनाम् ॥२५४०॥
अर्थ-जो भुमि प्रधःकर्म नामके बोष से दूषित पाहार को ग्रहण करते हैं, वे चाहे कायोत्सर्ग धारण करें, चाहे मौन धारण करें, चाहे वीरासन धारण करें, चाहे