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गूलाचार नदीम ]
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[ नवम अधिकार उठते समय, कर्वट बदलते समय और खुजाते समय कृपापूर्वक प्रयत्नपूर्वक, प्रांख से देखकर पीछी से प्रमार्जन करना चाहिये ।।२५२७-२५२८।।
अशुद्ध पाहार को ग्रहण करनेवाला मुनि मूल स्थान को प्राप्त होता हैयो विशोष्यमुनि तेपिण्डापध्याश्रयादिकान् । मूलस्थानं सएवाप्तो यतिस्वगुणदूरगः ॥२५२६।।
अर्थ--जो मुनि श्राहार के प्राश्रित रहनेवाले पदार्थों को ( आहार को वा उच्चासन मादि को) बिना शुद्ध किये आहार ग्रहण कर लेता है, वह मुनि मुनिपने के गुणों से बहुत दूर रहता है तथा मूल स्थान को प्राप्त होता है ( उसे फिर से दीक्षा देनी चाहिये ।) ॥२५२६।।
अशुद्ध आहार ग्रहण करनेवाले के अन्य संयमादिक क्रिया व्यर्थ हैपिण्डोपध्याधिशुद्धिपोऽकृत्वातिमूढमानसः । कायक्लेशं सपः कुर्यातिचरप्रवृजितोपिसन् ॥२५३०॥ तस्मसंयमहीनं तत्तपो व्यययमादि च । न चारित्रं लियाश्रेष्ठा नस्यात्पापासवाड्या ॥२५३१॥
अर्थ-जो अज्ञानी मनि चिरकाल का वीक्षित होकर भी आहार ग्रहण करने को सामग्री को बिना शुद्ध किये कायक्लेश तपाचरण को करता है, उसका वह तपश्चरण संयम रहित कहलाता है और इसीलिये वह व्यर्थ है । इसीप्रकार उस मुनि के किये हुये यम नियम पारित्र भी सब व्यर्थ समझने चाहिये । उसको कोई भी क्रिया श्रेष्ठ नहीं कही जा सकती। क्योंकि संयम होन मुनि के सदा पापकर्मों का पालव होता रहता है और इसीलिये उसको सब क्रिया व्यर्थ हो जाती है ।।२५३०-२५३१॥
मूलगुण रहित उत्तरगुण फल प्रदाता नहींहिस्वामूलगुणानाधानल्या तिपूजाविहेतुना । वृक्षमूलावियोगान् यो बाह्यान् गृहातिबुद्ध'रान् ।। तस्योत्तरगुणा:सर्वेमूलहीना द्रुमा इव । समीहितफलं किं ते करिष्यन्ति जगस्त्रये ।।२५३३।। ।
अर्थ-जो मुनि अपनी कीति के लिये अथवा अपना बड़प्पन वा पूज्यपना दिखलाने के लिये महाव्रतरूप मूलगुणों का तो भंग कर देता है और वर्षाऋतु में वृक्षके नीचे योपधारण करना आदि अत्यन्त कठिन बाह्य तपश्चरणों को धारण करता है, उसके मूलगुण रहित उत्तरगुण ऐसे ही समझने चाहिये जैसे बिना जड़के वृक्ष होता है। जिसप्रकार बिना जड़ का वृक्ष न ठहर सकता है, न बढ़ सकता है और न फल सकता है उसी प्रकार मूलगुण रहित उसरगुण तीनों लोकों में कभी इच्छानुसार फल नहीं दे सकते ॥२५३२-२५३३॥