________________
मूलाचार प्रदीप]
( ३८६ )
[नवम अधिकार शिक्षित्वायोखिलं ज्ञानं यदि चारित्रमंजसा । पालयेक्षात्र कि तस्य श्रुतशानफलंभुधि ॥२५१६॥
अर्थ- जो कोई प्रमादी मनुष्य हाथ में दीपक लेकर भी कुए में पड़ जाय तो फिर उसने उस दीपक का फल हो क्या पाया अर्थात् इस लोक में उसे दीपक का फल कुछ नहीं मिला । इसी प्रकार जो मनुष्य समस्त ज्ञान को पढ़कर भी यदि चारित को पालन नहीं करता है तो समझना चाहिये कि उसे इस संसार में श्रुतज्ञान का फल कुछ नहीं मिला ॥२५१५-२५१६।।
उद्गमादि दोषों से रहित उपकरणादि ग्रहण करनेवाले के ही शुद्ध चारित्र होता हैपिण्डं वसतिको ज्ञानसंबमोपधिमात्मवात् । उगमोत्पाबना दिभ्योदोषेभ्यःप्रत्यहं सुधीः ।।२५१७॥ शोषयेव्योतिनिर्योषचारित्रशुद्धयेमुनिः । विशुद्ध तस्स चारिणामते शिवकारणम् ।।२५१८।।
अर्थ--जो आत्मा के स्वरूप को जाननेवाला बुद्धिमान अपने निर्दोष चारित्र को सिद्ध करने के लिये प्राहार वसतिका ज्ञानोपकरण और संयमोपकरणों को उद्गम उत्पादन आदि वोषों से प्रतिदिन शुद्ध करता है, आहार भी निर्दोष ग्रहण करता है तथा उपकरणों के ग्रहण में भी कोई दोष नहीं लगाता उसी मुनि के मोक्ष का कारण ऐसा अत्यन्त शुद्ध चारित्र होता है ॥२५१७-२५१५॥
जिनलिंग के चिह्न निर्देश-- पूर्णमचेलकरवं च लोम्रोवराग्यवर्ट कः । सर्वसंस्कारहीनापराव्युत्सृष्टारोरसा ।।२५१६ ।। प्रतिलेखनमित्येषलिंगकल्पश्चतुर्विधः । जिनेन्द्रलिगिना व्यक्तो लोकेसंगसूचकः ॥२५२०॥
अर्थ-पूर्णरूप से नग्नता धारण करना, वैराग्य को बढ़ाने वाला केशलोच करना, सब तरह के संस्कारों से रहित शरीर से भी निर्ममता धारण करना और प्रतिलेखन के लिये पोछी धारण करना ये चार लिंगकल्प कहे जाते हैं, ये चारों ही भगवान जिनेन्द्रदेव के लिंग को प्रगट करते हैं और लोक में वैराग्य के चिह्न हैं ॥२५१६२५२०॥
मयूर पिच्छ के ५ गुणों का निर्देशरजःप्रवेवयो सुष्ट्वग्रहणंमदुतापरा । सौकुमार्य लघुत्वं च यत्रपंचगुणाइमे ।।२५२१।। सन्ति मयूरपिच्छेत्रप्रतिलेखनमूजितम् । तं प्रशंसन्तितीर्थेशाचयाय योगिनां परम् ।।२५२२॥
अर्थ-जिसपर न तो धूल लग सके, न पसीना लग सके, जो अत्यन्त कोमल हो, सुकुमार हो और छोटी हो, ये पांच गुण जिसमें हों वही प्रतिलेखन उत्तम गिना