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उत्कृष्ट ध्यान करने की प्रेरणा
सल्लेश्याध्यान चारित्रविशेषैस्तपसा सताम् । सद्गतिः स्वाध्यतेभ्योऽविध्यानं कार्यबुर्धः परम् ||६|| अर्थ -- उत्तम, शुभ लेश्या, ध्यान और चारित्र को विशेषता से तथा तपश्चरण से सज्जनों को श्रेष्ठ प्रति प्राप्त होती है तथा उनमें भी बुद्धिमानों को उत्कृष्ट ध्यान ही करना चाहिये ।। २५०६ ।।
मूलाधार प्रदीप ]
[ नवम अधिकार
सम्यग्ज्ञान एवं व्रतादिक के लिये सम्यग्दर्शन मुल कारण
I
सम्यक्त्वाज्जायते ज्ञानं ज्ञानात्सर्वार्थदर्शिनी । उपलब्धिः पदार्थानां सर्वेषां स्वपरात्मनाम् ।।२५१० ।। उपलब्धपदार्थोगीयोश्रेयश्च वेत्तिवे । श्रेयोश्रेयो वेतो तदुःशीलः सुशीलवान् ।। २५११।। शीलेनाभ्युदयः सर्वस्तलोमोक्षंल मेत सः । प्रतोज्ञानव्रतादीनां सम्यक्स्थमूलमुच्यते ।। २५१२ ।।
अर्थ- देखो सम्यग्वर्शन से सम्यग्ज्ञान को प्राप्ति होती है, सम्यग्ज्ञान से समस्त पदार्थों को दिखलाने वाली स्वकीय और परकीय समस्त पदार्थों की उपलब्धि प्राप्त होती है। जिसको समस्य पयारों की उपलब्धि प्राप्त हो जाती है वह मनुष्य अपने कल्याण-अकल्याण को जान लेता है । तथा कल्याण प्रकल्याण को जान लेने से शील रहित मनुष्य भी शीलवान बन जाता है । शील पालन करने से सब तरह के अभ्युदय प्राप्त हो जाते हैं तथा प्रभ्युदय प्राप्त होने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । प्रतएव कहना चाहिये कि सम्यग्ज्ञान और व्रतादिकों के लिये सम्यग्दर्शन ही मूल कारण है ।। २५१०-२५१२।।
ज्ञानकी अपेक्षा सम्यग्वारित्र प्रधान है—
कृत्स्नं चापि श्रुतज्ञानं पठितं सुष्ठुसंधितम् । गुषितं भ्रष्ट चारित्रं ज्ञानवन्संयति क्वचित् । २५१३१ सद्गतिनेनुमत्यर्थं न समर्थ भवेद्भवान् । यतो ज्ञानात्प्रधानत्वं चारित्रविद्धि मोक्षदम् ।। २५१४ ।।
अर्थ - जिस किसी यति ने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान पढ़ लिया है तथा अच्छी तरह उसको धारण कर लिया है, मनन कर लिया है तो भी चारित्र से भ्रष्ट उस ज्ञानी पुरुष को श्रेष्ठ गति में पहुंचाने के लिये आप कभी समर्थ नहीं हो सकते। अतएव हे मुने ! ज्ञानकी अपेक्षा तु सम्यक् चारित्र को ही प्रधान समझ । क्योंकि यह निश्चित है कि मोक्ष सम्यक्चारिन से ही प्राप्त होती है ।। २५१३-२५१४॥
चारित्र नहीं पालन करनेवाले का श्रुतज्ञान निष्फल है
यहिस्तो यः पतेरकूपेप्रमादवान् । तस्यवीपफलं किल्यास किंचिदपि भूतले ।। २५१५ ।।