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मूलाचार प्रदीप]
( ३८७)
[ नवम अधिकार जाता है। ये पांचों गुण मयूरपिच्छ में हैं इसलिये भगवान जिनेन्द्रदेव जीवों की दया पालन करने के लिये मुनियोंको मयूरपिच्छ को पीछी की हो प्रशंसा करते हैं ॥२५२१. २५२२॥
निर्गन्य मुनि कैसे प्रतिलेखन को ग्रहण करेंप्रक्षिप्तं चक्षुषोर्यनमनापोडां करोति न । निर्गनिर्भयरम्यं तद्प्राय प्रतिसेखनम् ॥२५२३।।
___ अर्थ-जिसको आंख में डाल देने पर भी रंचमात्र पीड़ा न हो वही निर्भय और मनोहर प्रतिलेखन निग्रंथ मुनियों को ग्रहण करना चाहिये । ( जिसके रखने में कोई भय न हो मूठ में सोना चांदी न लगा हो उसको निर्भय कहते हैं।) ॥२५२३॥
प्रतिलेखन [पिच्छी] के अभाव में हिंसा से निवृत्ति नहीं हो सकतीउत्थायशमनावात्रौ विनात्रप्रतिलेखननात् । कृत्वाप्रस्त्रावणाश्चपुनः स्वपनवजनभुवि ॥२५२४ ।। उदर्शनपरावर्तनानि कुर्वनगोचरे । नेत्राणां वा यतिः सुप्तो जीवघातं कथं त्यजेत् ॥२५२५।।
अर्थ-यदि मुनि के पास प्रतिलेखन वा पीछी न हो तो जब कभी रात्रि में वह अपनी शय्या से उठेगा, मूत्र की बाधा दूर करने जायगा, फिर प्राकर सोयेगा, चलेगा, किसी पुस्तक कमंडलु आदि को उठावेगा, रक्खेगा, उठेगा, कर्बट बदलेगा अथवा ये सब क्रियाएं न भी करे तो भी नेत्र से न दिखने वाले स्थान में सोवेगा, इन सब त्रियानों में वह यति बिना पीछी के जीवों के घात को कैसे बचा सकेगा । अर्थात् मुनि के पास पीछी हर समय होनी चाहिये, बिना पीछी के जीवों को हिंसा का त्याग हो ही नहीं सकता ॥२५२४-२५२५॥
मुनियों का खास चिह्न पिच्छी हैभत्वेति कातिकेमासि कार्य सत्प्रतिलेलनम् । स्वयंपलिपिन्छानो लिंगचिह्नव योगिभिः ॥२६॥
अर्थ-अतएष मुनियों को कार्तिक महीने में स्वयं गिरे हुए पंखों को पीछो बनानी चाहिये क्योंकि यह मुनियों का खास चिह्न है ॥२५२६॥
कायोत्सर्गादि करते समय पिच्छो से प्रमार्जन करना चाहियेअसने शयनेस्थाने व्युत्सर्गगमनारिके । ग्रहणे स्थापने ज्ञानशीचोपकरणात्मनाम् ।।२५२७।। उनसनपरावर्तनांगकडूयनाविषु । कृपयायरनतः कार्यदृष्टिपूर्वप्रमार्जनम् ।।२५२८।।
अर्थ-मुनियों को सोते समय, बैठते समय, खड़े होते समय, कायोत्सर्ग करते समय, गमनागमन करते समय, ज्ञानोपकरण वा शौचोपकरण के उठाते रखते समय,