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मूलाचार प्रदीप
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[अष्ठम अधिकार समस्त अशुभों को नाश करनेवाली हैं और स्वर्गमोक्ष की देनेवाली हैं। जो महापुरुष अपने प्रात्माको शुद्ध करने के लिये प्रयत्नपूर्वक धारण किये हुए परम चारित्र के द्वारा इन क्शों शुद्धियों को पालन करते हैं, वे बहत हो शीघ्र कर्ममल कलंक से सर्वथा रहित हो जाते हैं ॥२४५८॥
____ मुनियों की श्रेष्ठ भावनात्रों की महिमा - एता मुक्तिवथूसखोश्चपरमानागारसद्भावना ये श्रृण्वंति च भावयन्तिनिपुरणाः शक्रमाचरन्त्युचताः । से सद्धर्मवशाजगत्त्रयपरसर्वार्थसिद्धयादिज भुक्त्वासौख्यमनारतसुतपसामुक्तिप्रयान्तिकमात् ॥
__ अर्थ-ये मुनियों की श्रेष्ठ भावनाएं सर्वोत्कृष्ट हैं और मोक्षरूपी स्त्री को सखी हैं । जो चतुर मुनि इनको सुनते हैं, इनका चितवन करते हैं और उद्योगी बनकर अपनी शक्ति के अनुसार इनका पालन करते हैं, वे उस धर्म के निमित्त से तीनों लोकों में श्रेष्ठ ऐसे सर्वार्थसिद्धि आदि के सुखों को निरंतर भोगते रहते हैं और फिर अंतमें श्रेष्ठ तपश्चरण धारण कर मोक्ष में जा विराजमान होते हैं ।।२४८६।।
अन्तमें सम्पूर्ण भावनायें एवं प्रात्मशुद्धि प्राप्ति की याचना-- ये सर्वे जिननायिकाश्च परयाशुद्धघावभूवुः पुरा, सिद्धान्तविजितानिरुपमा प्राप्ताः शिवस्त्रोंपराम् । येनागारसुभावतारतमहायोगास्त्रिधासाधवः से,
स्तुत्याममभावनापनसकलाः शुखोः प्रवध निजाः ।२४६०।। इति धीमूलाधारप्रयोपकाल्येमहाग्रंथे भट्टारफ श्रीसमलकोतिविरचिते
अनगारभावमा वर्णनो नामाष्टमोधिकारः। अर्थ-~-पहले समय में आज तक जितने तीर्थंकर हुए हैं, वे सब इन परम शुद्धियों से ही हुए हैं तथा उपमा रहित अनंत सिद्ध हुए हैं और उन्होंने जो सर्वोत्कृष्ट मोक्ष स्त्री प्राप्त की है, वह भी सब इन परम शुद्धियों का हो फल समझना चाहिये । इसीप्रकार प्राचार्य उपाध्याय साधु भी जो महा योगीश्वर कहलाते हैं वे भी मुनियों को इन भावनाओं में लीन होने से ही महा योगीश्वर कहलाये हैं । इसलिये मैं इन अरहंत सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय और साधुनों को स्तुति करता हूं, ये पांचों परमेष्ठी अपनी सय भावनाएं मुझे प्रदान करें तथा अपनी समस्त प्रात्मशुद्धि प्रदान करें ।।२४६०।। इसप्रकार प्राचार्य श्री सकलकोति विरचित मूलाचार प्रदीप नामके महाग्रन्थ में मुनियों की
भावनामों को निरूपण करनेवाला यह आठवां अधिकार समाप्त हुआ।