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मूलाचार प्रदीप]
(३८०)
[ अष्ठम अधिकार वे मुनिराज सदाकाल रहनेवाले मोक्षरूपी साम्राज्यको प्राप्त कर लेते हैं ।२४८०-२४८१॥
मुनिराज को श्रमरण आदि अनेक सार्थक नामों का स्वरूप-- धमयन्ति तपोभिर्ये स्वारमानं श्रमणा हि ते । शमयन्तिकषायान् पा खानि ये तेत्रसंयताः ।।१२॥ अपंथन्ति स्वकर्माणि गमयन्ति फिसर्षयः । मन्यन्ते स्वपराना सिद्धि ये मुनयोत्र ॥२४८३।।
मत्या : पंचसझानैर्युता वा मुनयोन ताः ॥२४६४।। साधयन्तिदगादीनि ओरिग ये क्षेत्रसाषवः । येषां न विद्यतेगारमनगारास्तएव हि ॥२४८५।। येषां वोतोविनष्ठो हि रागोदोषाखिलः समम् । वीतरागास्सेएवान त्रिजगन्नायपूजिताः ॥२४८६।।
अर्थ-वे मुनिराज तपश्चरण करके अपने प्रात्माको श्रम वा परिश्रम पहुंचाते हैं इसलिये वे श्रमण कहलाते हैं । वे कषाय तथा इन्द्रियों को शांत करते हैं इसलिये संयत कहलाते हैं । वे मुनिराज अपने कर्मों को प्रर्पण करते हैं, भगा देते हैं वा नष्ट कर देते हैं, इसलिये ऋषि कहे जाते हैं । वे सप्त ऋद्धियों को प्राप्त होते हैं इसलिये महषि कहे जाते हैं । वे मुनिराज अपने प्रात्मा का अथवा अन्य पदार्थों का मनन करते हैं इसलिये मुनि कहलाते हैं अथवा मतिज्ञान श्रुतज्ञान आदि पांचों ज्ञानों से वे सुशोभित रहते हैं इसलिये भी वे मुनि कहलाते हैं । के मुनिराज सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को सिद्ध करते हैं इसलिये साघु कहे जाते हैं। उनके रहने का कोई नियत स्थान नहीं रहता इसलिये वे अनगार कहलाते हैं । उनके रागद्वेष आदि समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं इसलिये वे वीतराग कहलाते हैं और तीनों लोकों के इन्द्र उनकी पूजा करते हैं । ॥२४५२-२४८६।।
वीतरागी के ध्यान की सिद्धि एवं रागी के ध्यानकी सिद्धि का अभाव इतिसाकिनामाप्तवीतरागतपस्विनाम् । ध्यानिना परमाध्यामशुद्धिनरागियोगिनाम् ॥२४६७।।
अर्थ-इसप्रकार अनेक सार्थक नामों को धारण करनेवाले वीतराग ध्यानी तपस्वियों के परम ध्यानकी शुद्धि होती है, रागी मुनियों के ध्यानकी सिद्धि कभी नहीं हो सकती ॥२४॥७॥
दशों शुद्धियों को उपसंहारात्मक महिमाइतिजिनमुखजाता येत्र शुद्धिदशव ाशुभसकलहंत्रोस्वर्गमोक्षाविकों। परम चरणमनेपालमन्त्यास्मगुखय रहितविधिमलागास्तेऽचिरात्स्युर्महान्तः ।।२४८८।।
अर्थ-इसप्रकार भगवान जिनेन्द्र देव के मुख से प्रगट हुई ये दस शुद्धियां