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मूलाचार प्रदीप ]
( ३७८ )
[ अष्ठम अधिकार
योगीजन ध्यान के द्वारा श्रशुभकर्म पर्वतों को चूर्ण करते हैंसद्ध्यानवाघातेन द्रुतं बुष्कर्मपर्वतान् । सार्द्धं मोहादिवृक्षैः प्राप्यतिशतचूर्ण ताम् ।।२४६६ ।। अर्थ- मुनिराज श्रेष्ठध्यानरूपी यन्त्र की चोट से मोहादिक वृक्षों के साथ साथ अशुभकर्मरूपी पर्वतों के सैकड़ों टुकड़े कर डालते हैं ।।२४६६ ।।
मुनिराज किसी भी अवस्था में ध्यान नहीं छोड़ते
गच्छन्ता वा सुखासीना बहोः सुखसुखादिकाः । अवस्था मुनयः प्राप्ताः क्वचिद्ध्यानं त्यजन्ति न ॥ अर्थ -- वे मुनि चाहे चल रहे हों, चाहे आराम से बैठे हों वा सुख दुःख की बहुत सी अवस्था को प्राप्त हो रहे हों तथापि वे ध्यान को कभी नहीं छोड़ते हैं ।
१२४७० ॥
शुभयान को करनेवाले मुनि अशुभध्यान के दश नहीं होते
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प्रातरौ कुलेश्यानां धर्मशुक्ला पिताशयाः । स्वप्नैपि न वशं यान्ति शुक्ललेश्यामहोदयाः || २४७११ – शुक्ललेश्या को धारण करनेवाले और अपने मन में धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को चितवन करनेवाले थे मुनिराज स्वप्न में भी कभी आर्तध्यान और रौद्रध्यान के वश में नहीं होते हैं ।। २४७१||
परीषादिकों के आनेपर भी ध्यान से च्युत नहीं होते -
परोषमहाम्पसवजेः क्वचित् । चलन्ति न मनागुध्यानावीन्द्रद्दवनिश्चलाः ॥ २४७२ ।। अर्थ- मेरा पर्वत के समान निश्चल रहनेवाले वे मुनिराज परीषहों की महासेना तथा उपसर्गों के समूह या जानेपर भी अपने ध्यानसे रंचमात्र भी कभी चलायमान नहीं होते हैं ।। २४७२ ॥
ध्यान रूपी रथमें कौनसे घोड़े जोतते हैं
राषों दुष्टी नयन्तादुत्पथं वलात् । सद्ध्यानर थमारमध्यान रज्वा स्थापयति ले ।। २४७३ ।। अर्थ-ये रागद्व ेष रूपी घोड़े बड़े ही दुष्ट हैं, ये मनुष्यों को जबर्दस्ती कुमार्ग में ले जाते हैं, ऐसे इन घोड़ों को योगी पुरुष ही अपने श्रात्मध्यानरूपी लगाम से श्रेष्ठ ध्यानरूपी रथ में जोत देते हैं ।। २४७३ |
ध्यान रूप परमानन्द को पीने से क्षुधा तृषा को नहीं जानते
पिपत्तः परमात्मोत्थं ध्यानानन्दामृतं सदा । मुख्यश्मा न जानन्ति क्षुत्तृषादिपरीषान् || २४७४ ॥
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