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नवमोधिकारः
मंगलाचरण सिवान्ससमयादीनांप्रणेतृनुपरमेष्ठिनः । त्रिजगप्नायपूज्याघ्रीनवंबेतद्गुणसिद्धये ॥२४६१।।
अर्थ---जो पांचों परमेष्ठी सिद्धांत और समय आदि को निरूपण करनेवाले हैं और तीनों लोकों के इन्द्र जिनके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं ऐसे पांचों पर भेष्ठियों को मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं ॥२४६१॥
समयसार अध्याय के कथन की प्रतिज्ञाप्रचाखिलागमस्यात्रदर्शनज्ञानयोः परः। चारित्रतपसो सारभूतः श्रीजिनभाषितः ॥२४६२॥ महान् यो ग्रंथसार: समयसाराभिधः सताम् । सर्वार्थसिद्धिवोवक्ष्येसमासेनतमूजितम् ।।२४६३।।
अर्थ-यह समयसार नामका महा ग्रंथ (अध्याय) सब ग्रंथों का सारभूत है, समस्त प्रागम का सार है, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सार है, चारित्र और तपश्चरण का सार है, सबका सारभूत है, भगवान जिनेन्द्र देव का कहा हुआ है, सर्वोत्कृष्ट है और सज्जनों को समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि करनेवाला है इसलिये अब मैं उसको संक्षेप से कहता हूं ॥२४६२-२४६३॥
कौन मुनि शौन मोक्ष प्राप्त करता हैव्रव्यशुचिपरी क्षेत्रकालशुद्धी व निर्मले । भावद्धि समाश्रिय ढसहन परम् ।।२४६४॥ धारिश्रेयसतेनित्यदर्शनशानपूर्वके । य स्तपस्वी विरागी स निर्वाणलभतेचिरात् ॥२४६५।।
अर्थ-जो वीतराग तपस्वी निर्मल द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि का आश्रय लेकर तथा उत्कृष्ट दृढ़ संहननों का आश्रय लेकर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक चारित्र के धारण करने में सदा प्रयत्न करता रहता है, वह मुनि शीघ्र हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।।२४६४-२४६५।।
चारित्र के बिना कोई शुद्ध नहीं हो सकताधोरोसैराग्यप्तस्पनः शिक्षित्वास्तोकमागमम् । चारित्राचरणसम्यग्दृष्टिः शुद्धपति नापरः ।।१६। वैराग्यजितो बानी पठित्वा सकलापमम् । चारित्रविकलो जातु म शुद्धपति विर्षगात् ।।६७॥