________________
मूलाचार प्रदीप ]
विकार उत्पन्न नहीं होता है ॥२४१७॥
( ३७० )
वे मुनिराज सदा रत्नत्रय श्रीषध का सेवन नहीं करते
[ अष्ठम अधिकार
तपोरत्नत्रयं जन्ममृत्युकृत्स्नरुजान्तकम् । विश्वक्लेशहरं खेकं लेवन्ते ते तचापरम् ।। २४१८ ।। अर्थ- वे मुनिराज समस्त क्लेशों को दूर करनेवाले और जन्ममरणरूपी समस्त रोगों को नाश करनेवाले रत्नत्रय को तथा तपश्चरण को सेवन करते रहते हैं, रत्नत्रय और तपके सिवाय वे अन्य किसी का सेवन नहीं करते ।। २४१८ ||
बें मुनिराज सदा शरीर के स्वरूप का विचार करते हुए उसे भात्मा से भिन्न मानते हैंरोगोरगविनिद्य कृतान्तमुखमध्यगम् । शुकधोति वोजोरथसप्तधातु कुलालयम् ।।२४१६ ।। क्रमिकोटिशताकीर्ण बीभत्सं च घृणास्पदम् । विष्ठादिनिचितासारं मलमूत्राविभाजनम् | २४२० पंचाक्षतस्करावासं विश्वतुः ख निबन्धनम् । कृत्स्नाशुष्याकरीभूतं शुचिद्रव्याशुचिप्रदम् ।। २४२१ ।। aeroinsोपाग्निषितं भवन् । रागादिपूरितं इतिकर्मकारम् ॥। २४२२ ।। इत्याद्यन्महावोषमूलं कामकलेवरम् । पश्यन्तश्चिन्तयन्तस्ते भावयन्तोनिरन्तरम् ।।२४२३ ।। तस्मात्सदापूर तस्वात्मानं सद्गुणार्णवम् । कथं कुर्वन्ति रागाची निर्विष्णाः काय शर्मणि ॥ २४ ॥
अर्थ - यह शरीर रोगरूपी सर्पों का बिल है, अत्यंत निद्य है, यमराजके मुख में ही उसका सदा निवास है, यह शुक्र रधिर रूपी बीजसे उत्पन्न हुआ है, सप्ल धातुनों से भरा हुआ है, करोड़ों अरबों कीड़ों से अत्यन्त भयानक है, अत्यन्त घृणित है, मल मूत्र आदि असार पदार्थों से विष्ठा आदि अपवित्र पदार्थों का पात्र है, पांचों इन्द्रियरूपी चोर इसमें निवास करते हैं, समस्त दुःखों का यह कारण
भरा हुआ है, भरा हुआ है,
है, समस्त अपवित्र पदार्थों की खानि है, पवित्र पदार्थों को भी अपवित्र करनेवाला है. भूख, प्यास, काम, क्रोधरूपी अग्नि से सदा जलता रहता है, जन्ममरणरूप संसार को बढ़ाने वाला है । रागद्व ेष से भरा हुआ है, दुर्गंध और अशुभ कर्मों का कारण हैं, तथा और भी अनेक महा दोषों का मूल कारण ऐसे शरीरको देखते हुए वे मुनिराज निरंतर उसी रूपसे चितवन करते हैं तथा अनन्त गुणोंका समुद्र ऐसे अपने श्रात्माको उस शरीर से सदा भिन्न मानते हैं । इसप्रकार शरीर के सुखसे विरक्त हुए वे मुनिराज उस शरीर में राग कैसे कर सकते हैं ।। २४१६-२४२४॥
भोगों की प्रसारता का चिन्तवन करते हुये वे मुनिराज भोगों को इच्छा नहीं करतेस्वाम्यांगज नितान्भोगांश्चतुर्गतिनिबन्धनान् । जगद :शाकरीभूतान् महापापकशन् बुधः ।।२५।। निधात् वाहान पशुम्लेच्छाविसेवितान् । निचकर्म भवान् शत्रुभिहन्ते न से वचित् ॥ २६ ॥ ॥
*