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मूलाचार प्रदीप ]
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[ अष्ठम अधिकार
से सुशोभित हैं, जो महाज्ञानी हैं, शास्त्ररूपी हैं, अमृतके पान से जिन्होंने अपने कानों को प्रत्यन्त श्रेष्ठ बना लिया है, जो महा बुद्धिमान और महा चतुर हैं, मलिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन चारों ज्ञानों से सुशोभित हैं जो समस्त पदार्थों के सार को जानते हैं और जो अपने मनको सदा श्रेष्ठ ध्यान में ही लोन रखते हैं, ऐसे महाज्ञानी पुरुष मन-वचन-कायको शुद्धता पूर्वक समस्त अंगों को स्वयं पढ़ते हैं, सज्जनों को पढ़ाते हैं और अनेक अर्थों को चितवन करते रहते हैं । इसप्रकार इस संसार में ज्ञानी पुरुषों को प्रतिदिन प्रवृत्ति रहती है ।। २४०१-२४०६ ॥
मुनिराज जिनवाणी रूपी अमृत का पान करते एवं करवाते हैं
विदोपि सकलांगानां तद्गतं न मनारमदम् । कुर्वन्ति न सहन्ते स्वतपूजादिकं क्वचित् ॥ ७॥ जिवाक्सुधापनं जन्ममृत्युविषापहम्। विश्वक्लेशहरं पंचेन्द्रियतृष्णाग्नि वारिम् ।।२४०६८ ।। विज्ञाय जन्मवाहातिशान्तये शिवशर्मणे । कुर्वन्ति कारयन्मयन्यात् विस्तारयन्ति ते भुवि ।। २४०६ ।। अर्थ- मुनिराज यद्यपि समस्त अंगों को जानते हैं तथापि वे किचित भो उसका अभिमान नहीं करते तथा उससे अपनी प्रसिद्ध वा बड़प्पन पूजा श्रादि की भी कभी इच्छा नहीं करते | यह जिनवाणी रूपी अमृत का पान करना जन्ममृत्युरूपी विष को नाश करनेवाला है, समस्त क्लेशों को दूर करनेवाला है, और पंचेन्द्रियों की तृष्णा रूपी अग्नि को बुझाने के लिये मेघ के समान है । यही समझकर वे मुनिराज जन्ममरणरूपी दाह को शांत करने के लिये श्रीर मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये स्वयं freerणी रूपी अमृत का पान करते रहते हैं, दूसरों को उसका पान कराते रहते हैं और इस लोक में उस जिनवाणीरूपी अमृतका विस्तार करते रहते हैं ।। २४०७-२४०६ ।। ज्ञान शुद्धि का स्वामी कौन मुनि होते हैंप्रत्यभीषण महाशानोपयोगवशवर्तिनाम् । ज्ञान शुद्धिमंतासर्नान्येषां च प्रभाविनाम् ।। २४१० ।। धर्म- जो मुनिराज निरंतर ही महाज्ञानमय अपने उपयोग के वशीभूत हैं अर्थात जो निरंतर ज्ञानमें ही अपना उपयोग लगाये रहते हैं, उन्हीं सज्जन मुनियों के ज्ञानशुद्धि कही जाती है, अन्य प्रमादी पुरुषों के ज्ञानशुद्धि कभी नहीं हो सकती ।
॥२४१० ॥
उज्भन शुद्धि का स्वरूप
मोथे यः शरीरेपि संस्कारः क्षालनादिभिः । वध्वादिविवयेस्नेहो मोहारि जनकोऽशुभः ।। ११ ।। संगममत्वभावो वा निचेः किमले न च । क्वचित्कामताः शुद्धिः सावोज्झनाभिधा ||१२||