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मूलाधार प्रदीप ]
[प्रष्ठम अधिकार मुनिराज कसे वचन नहीं कहतेकौस्कुच्यममकन्वर्ष मोख्य साधुमिन्वितम् । हास्याविप्रेरक जातु दुवंशी न प्रवन्ति ते ॥२४३६॥
अर्थ-वे मुनिराज शरीर में विकार उत्पन्न करनेवाले वचन कभी नहीं कहते, कामवासना को बढ़ाने वाले बचन कभी नहीं कहते, साधुनों के द्वारा निंदनीय ऐसी बकवाद कभी नहीं करते और हंसी को उत्पन्न करनेवाले वुर्वचन कभी नहीं कहते हैं । ॥२४३६॥
वे मुनिराज धर्मोपदेश एवं श्रेष्ठ कथा ही कहते हैंनिविकाराविचारशाः शिवधीसाधनोगताः । शिवाय धीमतां नित्यं शिक्षान्तिधर्मवेशनाम् । ४०॥
श्रीजिनेन्द्रमुखोस्पन्नामहापुरुषसम्भवाः । संवेगजननी:सारास्तत्त्वगर्भाः शिवंकराः ।।२४४१॥ रागारिनाशिनीश्चित्तपंचेन्द्रियमिरोषिनी: । सस्फयाः धर्मसंबद्धाः कथयन्तिसतां विवः ॥२४॥
अर्थ-विकार रहित, विचारशील और मोक्ष लक्ष्मी को सिद्ध करने में सरा तत्पर ऐसे वे मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये बुद्धिमानों को सदा धर्मोपदेश ही देते हैं । जो धर्म संबंधिनी श्रेष्ठ कथा भगवान जिनेन्द्रवेव के मुख से प्रगट हुई है, जिसमें तीर्थंकर ऐसे महापुरुषों का कथन है, जो संवेग को उत्पन्न करनेवासी है, सारभूत है, तस्वों के स्वरूपको कहने वाली है, मोक्ष बेनेवाली है, रागढष रूपी शत्रुको नाश करने वाली है, तथा मन और पंचेन्द्रियों को रोकने वाली है, ऐसो श्रेष्ठ कथा हो वे चतुर मुनिराज सज्जनों के लिये कहते हैं ॥२४४०-२४४२।।
कैसे मुनिराज वाक्यशुद्धि धारी होते हैंसस्वाघिका प्रनगारभावनारतमामसाः । स्वारमध्याणपरास्तेस्युस्तत्त्वचिस्तावलम्बिनः ॥२४४३॥ इत्यामन्यगुणप्रामा: मे मौनव्रतधारिणः । मका इवात्र तिष्ठन्ति से वाक्यद्विधारका ॥२४॥
अर्थ-जो मुनिराज समर्थशाली हैं, अपने मनको सदा मुनियों को भावना में लगाये रहते हैं जो अपने प्रास्मध्यानमें सदा तत्पर रहते हैं और तत्त्वोंके चितवन करने का ही जिनके सदा अवलंबन रहता है। इसप्रकार के और भी अनेक गुणों को जो धारण करते हैं तथा गूगे के समान मौनव्रत धारण कर ही अपनी प्रवृत्ति रखते हैं ऐसे मुनियों के उत्तम वाक्यशुद्धि कही जाती है ।।२४४३-२४४४॥
तपशुद्धि का स्वरूपद्विषड्भेदं तपः सारं सर्वशक्त्याजिनोवितम् । दुष्कर्मारातिसन्तानोन्मूलनंशिवकारणम् ।।२४४५॥