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मूलाचार प्रदीप ]
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( মঠম মক্কিা । ___अर्थ- अपने शरीर से वा अन्य पदार्थों से उत्पन्न हुए ये भोग चारों गति के कारण हैं, संसार के समस्त दुःखों को खानि हैं, महापाप उत्पन्न करनेवाले हैं, विद्वान लोग सदा इनकी निंदा करते रहते हैं, दाह दुःख और अनेक रोगों के ये कारण हैं पशु और म्लेच्छ लोग ही इनका सेवन करते हैं और निध कर्मों से ये उत्पन्न होते हैं इस प्रकार शत्रु के समान इन भोगों को इच्छा वे मुनिराज कभी नहीं करते हैं ।। २४२५२४२६॥
बन्धुवर्ग में भी स्नेह नहीं करतेमोहशात्रवसन्तानेबंधूवर्गे तिदुस्त्यजे । धर्मज्ने पापवीजे ते स्नेहं जातु न कुर्वते ।।२४२७।।
अर्थ- ये बंधुवर्ग भी मोहरूपी शत्रु की संतान हैं, पाप के कारण हैं, धर्म को नाश करनेवाले है और अत्यन्त कठिनता से छोड़े जा सकते हैं, ऐसे बंधुवर्ग में वे मुनिराज कभी स्नेह नहीं करते ॥२४२७॥
कौन मुनिराज उज्झन शुद्धि के धारी होते हैंइत्यादि निर्मलाचारः स्वत्तो विश्वान्यवस्तुषु । त्यतरागाश्च घे तेषांस्याद्धिरुज्झनासया ।।२८।।
अर्थ-जो मुनिराज इसप्रकार स्वयं निर्मल माचरणोंको पालन करते हैं और अन्य समस्त पदार्थों में कभी राग नहीं करते ऐसे मुनियों के उज्झन नाम को शुद्धि होती है ।।२४२८।।
वाय शुद्धि का स्वरूपजिनसूत्राविरुद्ध यदनेकांतमताधितम् । एकांतदरगं तभ्यं विश्वजन्तुहितावहम् ॥२४२६ ।। मितं मन यतेसार बचन धर्मसिद्धये। उन्मार्गहानये वक्षः सा वाक्मशुद्धिरुतमा ॥२४३०॥
अर्थ-चतुर मुनि कुमार्गको नाश करने के लिये और धर्म की सिद्धि के लिये सदा ऐसे वचन बोलते हैं जो जिनशास्त्रों के विरुद्ध न हों, अनेकांत मतके माधय हों, एकांत मतसे सर्वथा दूर हों, यथार्थ हों, समस्त जीवों का हित करनेवाले हों, परिमित हों और सारभूत हों । ऐसे वचनों का कहना उत्तम वाक्यशुद्धि कहलाती है ॥२४२६. २४३०॥
कैसे वचन मुनिराज नहीं बोलतेबामयं च विनयातीतं धर्महीनमकारणम् । धिकरते परैः पृष्टा प्रपृष्टा वा बस्ति न ॥२४३१।।
अर्थ-जो बचन विनय से रहित हैं, धर्म से रहित हैं, विरुद्ध हैं और जिनके