________________
मूलाचार प्रदीप
( ३६७ )
[ अध्ठम अधिकार लिये पाहार के दोषों से सदा डरते रहते हैं और निर्दोष आहार को ग्रहण करके भो प्रतिक्रमण करते हैं ।।२३६७॥
भिक्षाशुद्धि किम मुनि के होती है ? इत्यादि यत्नजांभिक्षामेषरणाशुद्धिपूधिकाम् । ये श्रयन्ति सदातेषां भिक्षाशुद्धिनं चान्यया ॥२३६६।।
अर्थ- इसप्रकार जो मुनिराज एषणाशुद्धि पूर्वक, यत्नाचार पूर्वक प्राहार ग्रहण करते हैं उन्हीं के यह भिक्षाशुद्धि होती है, अन्य किसी के नहीं ।१२३६८।।
ज्ञानशुद्धि का स्वरूपकालक्षेत्राबियाविनयेनैकाग्रचेतसा । अंगपूर्यादिसूत्राणां पठन परिवर्तनम् ॥२३६६॥ पाठन व सतां मुक्त्य क्रियते यन्मुनीश्वरः । ज्ञाननेत्रर्मदातोतानशूहिःस्मतानसा ॥२४००।।
अर्थ-ज्ञानरूपी नेत्रों को धारण करनेवाले और ज्ञानके अभिमान से सर्वथा रहित ऐसे मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये कालशुद्धि, क्षेत्रशद्धि प्रादि समस्त शुद्धियों के साथ-साथ विनयपूर्वक एकाग्रचित्त से अंगपूर्व वा सूत्रों का जो पठन-पाठम करते हैं वा पाठ करते हैं उसको सज्जन पुरुष ज्ञानशुद्धि कहते हैं ॥२६६६-२४००॥
ज्ञान शुद्धि धारी मुनिराज को प्रवृत्तिमहातपोभराकांता दृढ चारित्रधारिणाः । शुष्कधर्मास्थिसर्वांगाविश्वासाल्यातिजिताः ।२४०१। महाष्टांगनिमित्तशाःसर्वांगमाधिपारगाः । द्वादशांगार्यवेसारः परापापितत्रेतसः ।।२४०२।। धारणपणे सक्ता अंगार्थानां मतेर्वलात् । पादानुसारिणो बीजबुद्धयः कोष्ठबद्धयः ।।२४०३।। संभिन्नबद्धयोरक्षा सप्तदिभूषिता विचः । श्रुतामृतात्तसत्करमहाबुद्धिविशारदाः ।।२४०४।। मतिश्रुताबधिज्ञानमनःपर्ययमंडिताः । ज्ञातविश्वार्थसाराचसद्धथानलोनमानसाः ॥२४०५॥ त्रिशुद्धयानिधिनांगामापठन पाठनःतताम् । तदर्थचिन्तनर्लोके वर्तन्ते शानिनोम्यहम् ॥२४०६।।
अर्थ-जो मुनिराज महातपश्चरण के बोझ से दबे हुए हैं, बढ़ चारिन को धारण करनेवाले हैं, जिनका धमड़ा, हड्डी प्रादि समस्त शरीर सूख गया है, जो अपने मनमें विश्वास और प्रसिद्ध आदि को कभी नहीं चाहते, जो महा अष्टांग निमित्तशास्त्रों के जानकार हैं, समस्त प्रागम रूपी समुद्र के पारगामी हैं, द्वादशांग के अथं को जानने वाले हैं, अपने मनको सदा दूसरे के उपकार में ही लगाते रहते हैं, जो अपनी बुद्धि की प्रबलता से अंगों के अर्थ को ग्रहण करने पर धारण करने में समर्थ हैं, जो अत्यन्त चतुर हैं, पादानुसारी बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, संभिन्नबुद्धि प्रादि सासों प्रकार को ऋषियों
नाम