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मूलाचार प्रदीप
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[ षष्टम अधिकार ध्यानादि के भेट में चार प्रकार के धर्मध्यान का स्वरूप - ध्यानं ध्येयंबुधध्याता फरनमस्पनिगद्यते । ध्यान प्रशस्तसंकल्पंपरमानन्दकारकम् ।।२०६७।। विश्वध्यपवार्यादिश्रीजिनागममूजितम् । परमेष्ठिस्वरूप च ध्येयमस्याखिलभतम !॥२०६८।। व्रतशीलगुणःपूर्णोविरागो विश्वतत्त्वरित । एकान्तवाससंतुष्टोधीमानध्यातास्यकथ्यते ॥२०६६।। स्वार्थसिद्धिपर्यन्तम् सर्वाभीष्टार्थसाधकम् । तीर्थकृताविसस्पुण्यकरं ध्यानस्य सत्फलम् ।।२०७०।।
अर्थ-ध्यान, ध्येय, ध्याता और फलके भेद से इसके भी चार भेद हैं । जो परमानंद उत्पन्न करनेवाला शुभ संकल्प है उसको बुद्धिमान लोग ध्यान कहते हैं। श्री जिनागम में कहे हुए जो सर्वोत्कृष्ट जीवाजीवादिक समस्त तत्त्व वा पदार्थ हैं अथया परमेष्ठियों का जो स्वरूप है वह सब इस भ्यानका ध्येय समझना चाहिये । जो व्रत शील और गुणों से सुशोभित है, जो धीतराग है, समस्त तस्थों को जानने वाला है, बुद्धिमान है और एकांतदासमें सदा संतुष्ट रहता है, वह इस ध्यानका ध्याता कहलाता है । तीर्थंकर आदि श्रेष्ठ पुण्य प्रकृतियोंको उत्पन्न करनेवाला और समस्त इष्ट पदार्थों को सिद्ध करनेवाला ऐसे सर्वार्थसिद्धि पर्यंत स्वर्गों का सुख प्राप्त होना इस ध्यान का फल समझना चाहिये ॥२०६७-२०७०॥
धर्मध्यान के स्वामी का निरूपणपीतावित्रिकलेश्योस्थेवलाथानंकिलास्य च । क्षायोपशमिको भावः काल प्रान्समुहतंकः ॥२०७१।। गुणस्यानेषुतत्स्यानाधिरतादिषुनिश्चितम् । सरागेषुकुरागनं धर्मध्यानं गुभाकरम् ॥२०७२।।
अर्थ-पोत, पर, शुक्ल ये तीन लेश्याएं इस ध्यान का प्रालंबन है, इसमें क्षायोपशमिक भाव होते हैं और इसका काल अंतर्मुहूर्त है । यह अशुभ रागको नाश करनेवाला और शुभ वा कल्याण करनेवाला धर्मध्यान चौये गुणस्थान से लेकर सातव गुणस्थान तक रहता है ॥२०७१-२०७२।।
धर्मध्यान का फल एवं उसे करने की प्रेरणामोहप्रकृतिसप्तानां ध्यानमेतार्यकरम् । एकविंशतिमोहप्रकृतीनां शमकारणम् ।२०७३।। यत्नेन महता जातमेतदक्ष्यानं सुखाकरम् । कुर्धन्तुध्यानिनो निस्म शुक्ल विश्वद्धिधर्मदम् ॥२०७४।।
अर्थ-यह धर्मध्यान सम्यग्दर्शन को नाश करनेवाली मोहनीय को सातों प्रकृतियों को नाश करनेवाला है और बाकी की मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों को उपशम करने का कारण है । यह धर्मध्यान बड़े प्रयत्न से उत्पन्न होता है, सुख को खानि है तथा शुक्लध्यान समस्त ऋद्धियां और उत्तम धर्मको देनेवाला है । इसलिये