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मूलाचार प्रदीप ]
( ३३३ )
[ सप्तम अधिकार
नहीं" इसप्रकार कहकर उन शास्त्रोंका सुनना तथाकार कहलाता है ।। २१७०-२१७१।। निषेधिका एवं प्रासिका का स्वरूप -
गिरिकन्दरजीर्णोद्यानगुहापुसिनादि । प्रवेशसमये काग्यवधाय निषेधिका ।।२१७२॥ तेभ्योद्रादिप्रवेशेभ्योन्ये निर्गमनेसदा । विधातव्यासिका व्यंतरादिप्रीत्यविचक्षणः ।।२१७३ ।।
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अर्थ - किसी पहाड़ की गुफामें, पुराने वनमें, कंदरा में किसी नदी के किनारे पर प्रवेश करना हो तो उस समय जीवों का बध न हो इसलिये मुनियों को निषेधिका करनी चाहिये । पिसही जिसही ऐसा उच्चाररण करना चाहिये। चतुर मुनियों को व्यंतराविक देवों को प्रसन्न करने के लिये पर्वत की गुफा सूने मकान आदि से बाहर जाते समय श्रसही असही ऐसा कहकर आसिका करनी चाहिये ।।२१७२-२१७३॥
श्रपृच्छा नामक समाचार का स्वरूप ---
प्रतापनादियोगानग्रहणे तपसां भुवि । करणे काय स्थित्यंचर्यादिवजनेवरे || २१७४ | ग्रामादिगमने वान्याखिले कार्यशुमैनिजे । सूर्यादीन् विनयेनेत्याच्या कार्याध्यकः ।। २१७५ ।। अर्थ - शिष्य मुनियोंको आतापन श्रादि योगके धारण करते समय, तपश्चरण धारण करते समय शरीर को स्थिर रखने के लिये चर्या करने को जाते समय, दूसरे गांव को जाते समय तथा और भी अपने शुभ समस्त कार्यों के करनेपर विनयपूर्वक आचार्यो से पूछना चाहिये, इसी को आपृच्छा नाम का समाचार कहते हैं ।। २१७४२१७५।।
प्रतिपृच्छा नामक समाचार का स्वरूप
महत्कार्ये दुष्करं धर्मसम्भवम् । करणीयंत्रसाम्यात्भगुर्वाचार्यादिका खिलान् ॥ २१७६ ।। पृष्ट्वान वासाधूनुसाघुपृच्छति सिद्धये । निजकार्यस्य तविद्धि प्रतिपृच्छां शुभप्रदाम् ।।२१७७।। अर्थ -- यदि किसी साधु को धर्म सम्बन्धी कोई अत्यंत कठिन और बहुत बड़ा कार्य करना हो तो वह पहले अपने गुरु आचार्य वा वृद्ध मुनि आदि सबको पूछ लेता है तथा अपने कार्य की सिद्धि के लिये फिर भी वह साधु अन्य साधुओं को भी पूछता है, इस कल्याण करनेवाले समाचार को प्रतिपृच्छा कहते हैं ।। २१७६-२१७७।।
छंदन नामक समाचार का स्वरूप --
generaहोतेषु निषेवन्दनादिके । अनागमपदार्थानां प्रश्नेऽन्येषमं कर्मणि ॥ २१७८ ।। गणेशवृषभावना विश्वभव्य हितात्मनाम् । दक्षैरिच्छानुवृत्तिर्याचयते चन्दनं च तत् ।। २१७६ ।।