________________
मूलाचार प्रदीप]
( ३४१)
[सप्तम अधिकार कालमें जो मुनि होते हैं वे हीन संहनन को धारण करनेवाले और चंचल होते हैं । ऐसे मुनियों को इस पंचम कालमें दो तीन चार प्रादि की संख्या के समुदाय से ही निवास करना समुदायसे ही विहार करना और समुदाय से ही कायोत्सर्ग आदि करना कल्याण कारी कहा है ॥२२२५-२२२६॥
प्रागम विरुद्ध अन्यथा प्रवृत्ति करने का निषेधसतिशुभाचारो पत्याधारो जिनावरैः । प्राचारगुणविव्यच नाग्यथाकार्यकोटिभिः ।।२०॥
अर्थ-भगवान जिनेन्द्रशेव ने यत्नाचार प्रयोंमें यतियोंके समस्त शुभ आचार गुण और आत्माकी शुद्धता को । वृद्धिके लिये कहे हैं इसलिये करोड़ों कार्यों के होनेपर भी अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये ।।२२२७।।
पुनः संघ सहित विहार करने की प्रेरणामतोवविषमेकालेशरोरेचानकोट । निसर्गचचले चित्तसरबहीनेखिले भने ॥२२२८॥ जायतकाकिनां नवनिविछनेनवतादिकः । स्वप्नेपि न मनः शुशिः निष्कालकनीक्षणम् ।।२२२६।। विज्ञापेरपणिलाः कार्याः संधाटकेन सयतः । विहारस्थितियोगाचासनिविघ्नायरमे ।।२२३०।।
प्रर्ष-क्योंकि यह पंचम काल विषम काल है, इसमें मनुष्यों के शरीर अन्न के कीड़े होते हैं, तथा उनका मन स्वभाव से हो चंचल होता है और पंचमकाल के सब ही मनुष्य शक्तिहीन होते हैं । अतएव एकाकी बिहार करनेवालों के प्रतादिक स्वप्न में भी कभी निविघ्न नहीं पल सकते । तथा उनके मनको शुद्धि भी कभी नहीं हो सकती और न उमकी दीक्षा कभी निष्कलंक रह सकती है। इन सब बातों को समझकर मुनियों को अपने विहार निवास वा योगधारण प्रादि समस्त कार्य निर्विघ्न पूर्ण करने के लिये तथा उनको शुद्ध रखने के लिये संघके साथ ही विहार आदि समस्त कार्य करने चाहिये, अकेले नहीं ॥२२२८-२२३०॥
सोर्यकर परमदेव की मात्रा उल्लंघन से हानिइमा तीर्थकतामाज्ञामुल्लंघ्य ये कुमागंगाः । स्वेच्छावासविहारादीपुर्वतवृष्टिरमाः ॥२२३१॥ तेषामिहब ननस्पादनामचरणापः । कलंकला व दुमाया पहालः पोपडे ॥२२३२॥ परलोकेसर्वज्ञाशोल्लंघनातिकापतः। स्वभापितुर्मतीपोरं भलं पाविरंगहनु ।।२२३३॥
अर्थ-जो कुमार्गगामी इस तीर्थकर परमदेव की माला को उल्लंघन कर अपनी इच्छानुसार विहार वा निवास प्रादि करते है उनको सम्बमर्शन से ही रहित