________________
मुलाचार प्रदीप
( ३६४ )
। माटम अधिकार के लिये विहार करते हैं, चलते हैं तथापि फुतीर्थों के लिये बे लंगड़े ही बने रहते हैं, यद्यपि वे श्रेष्ठ कथाओं को कहते हैं तथापि विकथाओं को कहने के लिये वे गूगे बन जाते हैं । यद्यपि उपसर्गों को जीतने के लिये वे शूरवीर हैं तथापि कर्म बंधन करने के लिये वे कायर बन जाते हैं । यद्यपि अपने शरीर आदि से वे अत्यन्त निस्पृह हैं तथापि मुक्ति को सिद्ध करने के लिये वे तीव लालसा रखते हैं । यद्यपि वे सर्वत्र अप्रतिबद्ध हैं, किसी के बंधे हुए वा किसी के प्राधीन नहीं हैं तथापि वे जिनशासन के सदा प्राधीन रहते हैं। ऐसे वे प्रभाव रहित मुनिराज मोहका ममत्व का सर्वथा त्याग करने के लिये तथा अशुभ कर्म और परोषहों को जीतने के लिये बहुत सी पृथ्वी पर विहार करते हैं ।।२३७६-२३८१॥
___ यत्नाचार रहित चलने वाले मुनि के विहार सृद्धि नहीं होती-- सिंहसादृश्यवृत्तीनां निष्पापमार्गचारिणाम् । विहारशुधिरेवाश्रामीषां नायमचारिणाम् ।।२३८२
__ अर्थ-इसप्रकार सिंहके समान अपनी निर्भय वृत्ति रखनेवाले और पापरहित मार्गमें चलने वाले इन मुनियों के बिहार शुद्धि कही जाती है। जो मुनि यत्नाचार पूर्वक नहीं चलते उनके विहार शुद्धि कभी नहीं हो सकती ।।२३८२॥
भिक्षाशुद्धि का स्वरूपकृतायः सफलदोषयतः शुद्धोमलातिगः। भुज्यते भिक्षयाहारोयोग्यगेहे जिलेन्द्रियः ।।२३८३।। तपोयोगमपु:स्पिस्पषष्ठाष्ठमपारणे । पक्षमासोपवासायो वा भिक्षाशुद्धिरेव सा ।।२३८४।।
अर्थ-जो जितेन्द्रिय मुनिराज तपश्चरण योग और शरीर की स्थिति के लिये वेला, तेला के बाद के पारणा के दिन, एक पक्षके उपवास के बाद के पारणा के दिन अथवा महीना दो महीना के उपवास के बाद पारणा के दिन योग्य घरमें जाकर कृतकारित अनुमोदना आदि के समस्त दोषों से रहित वा अपना समस्त दोषों से रहित अत्यंत शुद्ध आहार भिक्षावृत्ति से लेते हैं उसको भिक्षाशुद्धि कहते हैं ॥२३८३-२३८४।।
३. मुनि नवकोटि से शुद्ध ४६ दोषों को डालकर आहार लेते हैं - नवकोटिविगुरदम्यकविशुद्धोषवनितम् । संयोजनाप्रमाणास्थयमांगारमलोभितम् ।।२३८५॥ अशनं विधिनावसं योग्य कालेसुगेहिभिः । पाणिपात्रेस्पिति करवाते भजन्तिशिवाप्तये ।।२३८६।।
___ अर्थ-वे मुनिराज केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिये सागृहस्थों के द्वारा योग्य कालमें विधि पूर्वक पाणिपात्रमें दिया हुआ मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदना