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मूलाचार प्रदीप ]
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[सप्तम अधिकार समझना चाहिये । ऐसे मुनियों के सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्न इसी लोकमें नष्ट हो जाते हैं, इसी लोकमें वे कलंकित हो जाते हैं, संघके बाहर करने योग्य हो जाते हैं और पदपद पर उनका अपमान होता है । भगवान सर्वज्ञदेव की माशा को उल्लंघन करने रूप महापाप से वे लोक-परलोक में भी नरकादिक दुर्गतियोंमें चिरकास तक महा घोर परिभ्रमण किया करते हैं ॥२२३१-२२३३॥
___ जिनेन्द्रदेव की आज्ञा उल्लंघन का निषेधइस्यपायं निविदानामुत्रविहारिणाम् । अनुसंध्याजिनेन्द्रामांप्रमाणीकृतमानसे ।।२२३४।।
___अर्थ-इसप्रकार अकेले विहार करनेवाले मुनियों का इस लोकमें नाश होता है गौरलोज भी नष्ट होता है, तो समझकर अपने मनमें भगवान जिनेन्द्रदेव की इ.ाजाको ही प्रमाण मानना चाहिये और उसको प्रमाण मानकर उसका उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिये ।।२२३४॥
पुनः अकेले रहने का एवं विहार करने का निषेध-- स्थितिस्थानविहारावीनसमुदायेनसंयताः। कुर्वन्तुस्वगुणादीनां वृसमे विघ्नहानये ।।२२३५।।
अर्थ-मुनियों को अपने गुणों की वृद्धि करने के लिये तथा विघ्नों को शांत करने के लिये अपना निवास वा विहार आदि सब समुदाय के साथ ही करना चाहिये अकेले न रहना चाहिये, न विहार करना चाहिये ।।२२३५॥
विद्या प्राप्ति हेतु, मुनि कैसे प्राचार्य के निकट जायें-- गच्छतातेनपल्लकिचिविद्यार्थिनायवि । सचिनाचित्तमिश्रं च द्रव्यं सत्पुस्तकादिकम् ।।२२३६।। अन्तरालेत्र तस्याहः एषसूरिननापरः । एवं गुणविशिष्ट स्यात्सोपि विश्वहितंकरः ॥२२३७१। संग्रहानुग्रहाभ्यां च कुशलोधर्मप्रभावकः । साविल्यातकोतिमिमनत्रार्थविशारदः ॥२२३८।। सकियाचरणाधारः षट्त्रिंशब्गुणभूषितः । गम्भीरोभिरिवालोम्यःसमयामासमोमहान् ॥३६।। सौम्येन चन्द्रसादृश्यःस्वच्छाम्बुवप्रशान्तवान् । पंचाक्षारि जयेशूरोमिथ्यास्वधातकः ।।४।। इस्यायन्यगुणाधारोयोत्राचार्योजगदितः । प्रजम्यःप्राप्तवाशिष्या स विद्याप्त्यैकमेणतम् ॥४१॥
अर्थ-मार्ग में चलते हुए उस विद्यार्थी मुनि को पुस्तक आवि अचित्त वा विद्यार्थी प्रादि सचित्त अथवा मिले हुए पदार्थ मिले तो उसको ग्रहण करने के अधिकारी प्राचार्य ही होते हैं । तथा थे आचार्य भी ऐसे होने चाहिये जो समस्त जीवों का हित करनेवाले हों, संग्रह (बीक्षा देकर अपना बनाना वा संघ बढ़ाना) और अनुग्रह (संस्कारों