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मूलाचार प्रदीप ]
( ३४८ )
[ सप्तम अधिकार मुनि आयिका को कव प्रश्न का उत्तर देवें और कब नहीं देखेंएकाकिन्यायिकामाश्च कृतं प्रल्न सुसूत्रजम् । मुनि काकिना जातु कथनीयं न शुद्धये ॥२२७० गणिनीमग्रतः कृत्वा यदि प्रानं करोतिसा । तवास्याः कश्येन्ननं तदर्थसंयमीस्फुटम् ।।२२७१।।
अर्थ-यदि कोई अकेली अजिका अकेले मुनि से शास्त्र के भी प्रश्न करे तो उन अकेले मुनि को अपनी शुद्धि बनाये रखने के लिये कभी उसका उत्तर नहीं देना चाहिये । यदि वह जिका अपनी गणिनी को (गुराणी को) आगे कर कोई प्रश्न करे तो उन अकेले संयमी मुनि को उस सूत्रका अर्थ समझा देना चाहिये वा प्रश्न का उत्सर दे देना चाहिये ॥२२७०-२२७१॥
तरुण मुनिको तरुण आर्यिका से बातचीत करने से पांच दोष लगते हैं उसका वर्णनतरुणोयविसद्योगीतरुण्यापिकयासमम् । कथालापादिकं कुर्यात्तस्येवं दोषपंचकः ।।२२७२।। आशाभंगोजिनेन्द्रस्यानयासिशास। माया पानामा गुणवतः ।।२२७३।। समस्तसंयमत्यवाविराधनानिकाचिताः । इमे पंच महादोषाः कृतास्तेनवृथात्मनः ॥२२७४।। ।
अर्थ---यदि कोई तरुण श्रेष्ठ मुनि किसी तरुणी अजिका के साथ कथा वा बातचीत करे तो उसको नीचे लिखे पांचों वोष लगते हैं । पहल तो भगवान जिनेन्द्रदेव को आज्ञा का भंग होता है । दूसरे जिनशासनमें अव्यवस्था हो जाती है सब लोग ऐसा ही करने लग जाते हैं। तीसरे मिथ्यात्व की आराधना हो जाती है । चौथे गुण और प्रतों के साथ-साथ उसके प्रात्माका नाश हो जाता है और पांचवं उसके समस्त संयम को विराधना हो जाती है । इसप्रकार महापापों के स्थान ऐसे पांचों दोष उस मुनिको व्यर्थ ही लग जाते हैं ॥२२७२-२२७४॥ मुनिको आर्यिका की एवं आयिका को मुनिकी वसतिकामें स्वाध्यायादि क्रियायें नहीं करना चाहिये---
मुनीनामार्यकास्थानेस्थातु जातुमयुज्यते । स्वाध्यायश्चतनत्सर्गोगृहोतु शयनासनम् ।।२२७५।। विधातु नोचिकितप्रतिकमरपस रिफया । प्रायद्वा घुतपाठाविरोगक्लेशाविकारणे: ।।२२७६॥ एताः सर्वाः क्रिया चान्ये पाचप्रक्षालनाक्यः । ज्ञातुकतुं न युज्यन्तेनार्याणसिंयताश्रमे ।।२२७७।।
अर्थ-मुनियों को अजिकानों के स्थान में कभी नहीं ठहरना चाहिये, न यहां स्वाध्याय करना चाहिये, न कायोत्सर्ग करना चाहिये, न शयन वा प्रासन ग्रहण करना चाहिये, प्रतिकमण आदि श्रेष्ठ कियाएं भी वहां नहीं करनी चाहिये अथवा शास्त्रों का पठन-पाठन भी वहांपर नहीं करना चाहिये। किसी रोग वा क्लेश हो जाने के कारण