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मूलाचार प्रदीप ]
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[ सप्तम अधिकार इत्याद्यन्यगुणःपूर्णीयोजय्यःसूरिश्त्तमः । सः स्याद्गणधरोत्रार्याणांप्रतिकमरणदिषु ।।२२८४॥
अर्थ-अतएव जो अपने धर्म में वृढ़ हैं, जो धर्म और धर्मके फलमें हर्ष मनाने वाले हैं, जो पापोंसे भयभीत हैं, महातपस्वी हैं, पीर वीर हैं, जिनका मन अत्यंत स्थिर है जो प्रत्यंत शुद्ध हैं, जो विकार और कौतुक से सर्वथा दूर रहते हैं जो संग्रह और अनुग्रह करने में कुशल हैं, गम्भीर हैं, मावश्यकता के अनुसार उतना ही भाषण करले हैं, जो दीक्षा और श्रुतज्ञान से सबसे बड़े हैं, जो अजेय हैं तथा जो ऐसे ही ऐसे अन्य अनेक गुणोंसे परिपूर्ण हैं, ऐसे जो सर्वोत्कृष्ट प्राचार्य हैं उनको गणधर कहते हैं। समस्त संघके मुनि और अजिकानों के प्रतिक्रमण आदि कार्यों को ऐसे गणधर हो कराते हैं। ॥२२८२-२२८४॥
गुणरहित प्राचार्य चार उत्तम कालों को विराधना करता है-- एवंसूरिगुरणःसारंव्यतिरिक्तः करोतियः । मुघागरणपरत्वसंयतीनासस्क्रियादिषु ॥२२८५।।
गणपोषरणमेवात्मसंस्कार कालकाजतः । सल्लेखनातवोत्तमार्थकाल इमेपराः ।।२२८६।। घरबार उत्तमाःकालाःपरमार्षविधायिनः । विराषिता निजास्तेमगुणरिक्त नसूरिणा ॥२२८७।।
अर्थ- इसप्रकार उत्तम प्राचार्यों के सारभूत गुणों से रहित जो आचार्य अजिकाओं के प्रतिक्रमण प्रादि क्रियाओं में गणधर बनकर बैठता है वह प्राचार्य गणपोषण काल, उत्तमप्रात्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल इन परमार्थ को सिद्ध करनेवाले चारों उत्तम कालों की विराधना करता है । गुणरहित आचार्म इन सबका नाश कर देता है ॥२२८५-२२८७॥
आगन्तुक साधुको परगण के आचार्य को इच्छानुसार प्रवृत्ति करना चाहिये-- बहुनोतन कि सायंयेच्छाचार्यस्यताखिला। कर्तव्या बसतातत्रतेन पुण्याकरोषिता ॥२२८८।।
__ अर्थ-बहुत कहने से क्या लाभ थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि वहां रहते हुए उस शिष्यको, पुण्यको बढ़ाने वाली और उचित ऐसी प्राचार्य की जोजो इच्छाएं हैं वे सब करनी चाहिये ॥२२८८॥
पुनः परगण के आचार्य की वन्दना, सुश्रूषा करने की प्रेरणासुभूषापंदनाभवत्यनुकूलाचरणाविभिः । एषएव विधिः कार्यरतच्छिण्यापरयोगिभिः ॥२२८६।।
अर्थ-उन बाहर से आए हुए शिष्यों को तथा अन्य योगियों को अपनीअपनी भक्ति के अनुसार प्राचरणादि करके प्राचार्य की सुभूषा और बंदना करनी