________________
मूलाचार प्रदीप
( ३५३ )
[ मानम अधिकार आश्रम में धूमती फिरती हैं, उनका शोल और उनकी शुभ क्रियाएं कभी नहीं फल सकती ॥२३०२३
अकेली प्रायिका को इच्छानुसार घूमने का निषेध गवं उसमे होने वाली हानि का निर्देश-- यतोयथासिद्धान्नभोक्तु सुखेनशक्यते । तथापास्वामिकांना स्वाश्रमेस्वयमागताम् ॥२३०३।। मतो जातु न विद्यतत्वचित्काले निजेच्छया । एकाकिन्यापिकायाश्चबिहारोगमनादिकः ।।२३०४।
अर्थ-जिसप्रकार पकाया हुआ भात आसानी से खाया जा सकता है उसी प्रकार बिना स्वामी की स्त्री यदि स्वयं अपने आश्रम में वा घर में प्रा जाय तो वह आसानीस भोगी जा सकती है। इसलिये अकेली अजिका को अपनी इच्छानुसार किसी भी समय में विहार और गमन आदि कभी नहीं करना चाहिये ॥२३०३-२३०४॥
मुनिको धिना प्रभोजन आयिका के आश्रम में जाने का निरोधसंयता वा गृहस्पानामायिकाणां च मन्विरम् । कसकशंकया जातुविनाकार्य न पान्सिभोः ।।
अर्थ-इसीप्रकार संयमी मुनियों को भी कलंक के डरसे बिना काम के न तो गृहस्थोंके घर जाना चाहिये और न अर्जिकाओं के आश्रम में ही कभी जाना चाहिये । ॥२३०५॥
___ मुनि, आयिकाओं को घर-घर घूमने का निषेधयतो रंडरसमा येत्र वानवस्थवृषोपमाः । स्त्रीवृन्दसंकुसरागाविगेहंगेहमटन्ति छ ।।२३०६।।
अर्थ- क्योंकि जो साधु रागपूर्वक स्त्रियों के समूह से भरे हुए घरों में घूमते रहते हैं उन्हें जंगली बैलों के समान समझना चाहिये । इसीप्रकार घर-घर घूमने वाली प्रजिकाओं को भी रंडात्रों के समान समझना चाहिये ॥२३७६।।
घर-घर धूमने से मुनिका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है . निर्विकारंस्थिरंचितवस्त्रोथगारदर्शनात् । ब्रह्मचर्य न नश्येतिकतेषांकुटिलचेतसाम् ॥२३०७।।
अर्थ---जो साधु बिना कामके घर-घर फिरते हैं उनका चित्त स्त्रियोंके सुमार देखने से विकार रहित और स्थिर कभी नहीं रह सकता तथा कुटिल हृदय को धारण करनेवाले उन साधुओं का ब्रह्मचर्य भी अवश्य नष्ट हो जाता है ।।२३०७।।
अजिका को दूसरे घर जाकर हीनक्रिया नहीं करना चाहियेस्लपनरोदन!ष्ठान्नादिपाकनिवर्तनम् । सत्सूत्रकरणंगीतगानंघाविद्यवादनम् ॥२३०८।।