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मूलाचार प्रदीप ]
( ३५१)
[सप्तम अधिकार पाहिये ॥२२८६॥
आयिका समाचार विवरण नीति-- अयमेवसमाचारो ययाल्यातस्तपस्विनाम् । तथैवसंयतीनां च यथायोग्यविचक्षणः ॥२२६०।। अहोरात्रेषिलो मुपायशिक्षयोहितकारकः । वलमलादिमघोगरहितोखिमभाषितः ॥२२६१॥ परस्परानुकूलाः सदान्योन्यरक्षरशोधताः । समानर्यावसंयुक्तामायारागादिदूरगाः ।।२२६२।। प्राचारादिसुशास्त्रारणां पठनेपरिवर्तने । तवर्षकथनेविश्वानुप्रेक्षा गुणचिन्तने ।। २२६३।। सारार्थधवणेशुखध्यानेसंयमपालने । तपोधिनयसोगेसदाकृतमहोद्यमाः ।।२२६४।।
अर्थ---यह जो समाचार मुनियों के लिये कहा है उसीप्रकार चतुर पुरुषों ने प्रजिकाओं के लिये भी यथायोग्य रीतिसे यही समाचार बतलाया है । अजिकाओं को मोक्ष प्राप्त करने के लिये हित करनेवाला यही समाचार दिन रात करना चाहिये । वृक्षके नीचे योग धारण करना आदि कठिन योग अजिकानों को नहीं करने चाहिये ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है । अजिकाओंको परस्पर एक दूसरे के अनुकूल रहना चाहिये, परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने में तत्पर रहना चाहिये, लज्जा और मर्यादा के साथ रहना चाहिये, मायाचारी, लोभ, राग प्राति से अलग रहना चाहिये, आचारादिक शास्त्रोंके पढ़ने में, पाठ करने में, उसके प्रर्थ कहने में, समस्त अनुप्रेक्षाओं के तथा गुणों के चितवन करने में उन शास्त्रों के श्रेष्ठ अर्थ सुनने में, शुद्धध्यान में, संयम के पालन करने में, तप और विनयके करने में और योग धारण करने में सदा महा उद्यम करते रहना चाहिये ॥२२६०-२२६४॥ प्रायिका को बारीर संस्कार त्याग, विकार जनिन वस्त्रों के धारण करने का निरोध, मंबेदादि
भावना में नत्पर रहने की प्रेरणामलजल्लविलप्तांगा वपुसंस्कारजिताः । विक्रियातिगवस्त्रवताः शान्ताचलासमाः ।।२२६५।। संगतत्परावक्षाःधर्मध्यानपरायणाः । कुलकोतिमिनेन्द्राशारक्षणोखतमामसाः ।।२२६६।। दुबलीकृतसर्वांगास्तपसासकालायिकाः । वि श्यादिगणनायुक्ता निवसन्तिभाशया। 1१२२९७।।
अर्थ-यदि उनके शरीर पर पसीना आ गया हो वा उस पसीना पर धन जम गई हो वा अन्य किसी अंग का नाक, कान आदि का मल लगा हो तो कोई हानि नहीं परन्तु उन अजिकानों को अपने शरीर का संस्कार नहीं करना चाहिये, जिनसे विकार उत्पन्न न हों ऐसे वस्त्रोंसे अपना शरीर ढकना चाहिये, शांत और अचल मासन से बैठना चाहिये, संसार से भयभीत रहने रूप संवेग में सदा सत्पर रहना चाहिये,
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