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मूलाचार प्रदीप ]
( ३४६)
[ सप्तम अधिकार भी ये सब क्रियाएँ अजिकानों के आश्रम में मुनियों को नहीं करनी चाहिये । तथा इनके सिवाय पावप्रक्षालन प्रावि क्रियाएं भी मुनियों को जिकाओं के प्राश्रम में नहीं करनी चाहिये । इसी प्रकार अजिकाओं को भी मुनियों के आश्रम में ये सब क्रियाएं नहीं करनी चाहिये ॥२२७५-२२७७।।
काम बिकार से मलिन मुनि सबका तिरस्कार कर गुणों को नष्ट कर देता हैपतःस्मविरमात्मानचिरप्रजिसं गुरुम् । बन्नुश्रुतागमसंचाचार्यपूज्यतपस्विनम् ॥२२७८।। महागुणपदारुढ़वंद्य न गरायेद्यमी । कामात:मलिनः शोघ्र कुलं चापि विनाशयेत् ॥२२७६।।
अर्थ--इसका भी कारण यह है कि जिसका हृदय काम के विकार के दुःख से मलिन हो रहा है, ऐसा मुनि न तो किसी वृद्ध मुनिको समझता है, न अपने प्रात्मा को समझता है, न चिरकाल के दीक्षित मुनि को गिनता है, न गुरु को गिनता है, महा श्रुतज्ञान और आगम को जानने वाले उपाध्याय को गिनता है, न प्राचार्य को गिनता है, न किसी पूज्यको समझता है, न घोर तपस्बो को गिनता है, न महा गुण और महा पदों पर प्रारूढ़ हुए महा मुनियों को गिनता है और न किसी वंदनीय मुनि को गिनता है । वह काम सेवन को इच्छा करनेवाला मुनि शोघ्न ही अपने कुल तक को नाश कर देता है । भावार्थ-वह मुनि सबका तिरस्कार करता है और अपने समस्त गुणों को नष्ट कर देता है ॥२२७८-२२७६॥
स्त्रियों के साथ बातचीत निंदा का कारण हैकन्यको विषय बुद्धास्वैरिणीयौवनारिमकाम् । रानी विलासिनीवासीलिगिनी वा तपस्विनीम् ।। वार्ताविजल्पनैरेषोलीयमामो चिरादपि । अपवायमवाप्नोसिसयमी विश्वनिन्धितम् ।।२२८१।।
___ अर्थ-जो संघभी किसी कन्या, विधवा, वृद्धा, इच्छानुसार घुमने वाली, यौवनवती, रानी, वैश्या, दासी, तपस्विनी, स्वमत वा अन्य मतकी बोक्षिता प्रादि किसी भी प्रकार की स्त्रियों के साथ बातचीत कर उनके साथ संलग्न होता है वह मुनि बहुत ही शीघ्र संसारभर में अत्यन्त निंदनीय अपवाद को प्राप्त होता है अर्थात् तीनों लोकों में उसकी निदा फैल जाती है ।।२२८०-२२८१॥
आर्यिकाओं को प्रतिक्रमणादि करवाने वाले प्राचार्य का लक्षणवृषर्मोसिसविग्नोऽवद्यभीरमहातपाः । पौरःस्थिरमनाः शुशोबिक्रियाकौतुकातिगः ।।२२८२॥ संभहानुभहावी व कुशलः संघयोगिमाम् । गम्भीरोमितवादी व ज्येष्ठो बोक्षाश्रतादिभिः ॥३॥