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मूलाचार प्रदीप ]
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[ सप्तम अधिकार अर्थ- किसी गांवको जाते समय भिक्षार्थ वर्याके लिये जाते समय वा और भी समस्त शुभ कार्यों के करते समय उस आये हुए शिष्य को पहले के समान प्राचार्य से वा अन्य साधुओं से पूछना चाहिये। जिसप्रकार अपने गणमें रहकर श्राचार्य श्रादि से पूछकर कार्य करता था उसीप्रकार परगणमें रहते हुए भी आचार्य मावि से पूछकर हो सब काम करना चाहिये ।।२२६४||
आचार्यादि की वैयावृत्य करने की प्रेरणा
बसतान्यगतेमात्र पर्यादि तपोभृताम् । व्यावृत्ययथायोग्यं कर्तव्यं दशधावशत् ।। २२६५ ।। अर्थ-दूसरे के गणमें रहते हुए भी उस शिष्य मुनिको आचार्य तपस्वी आदि ar प्रकार के मुनियों का वैयावृत्य यथायोग्य रीति से आदर के साथ करते रहना चाहिये ।। २२६५।।
प्रतिक्रमणादि एवं मिथ्याकारादि द्वारा व्रत शुद्धि करने की प्रेरणाअहोरात्रभवाः पक्ष चतुर्मासान्यगोचराः । सर्वाक्रिया विषासव्यास्तेन संयोगिभिः समम् ।।२२६६ ॥ पस्मिन् गच्छेतिचारोत्र जातोवाक्कायमानसे । मिथ्याकाराविभस्त कार्यंतस्थ विशोषनम् ।। ६७ ।।
अर्थ - उस समय आए हुए शिष्यको उस संघके मुनियों के साथ ही देवसिक रात्रिक पाक्षिक चातुर्मासिक वा वार्षिक प्रतिक्रमरण आलोचना आदि समस्त क्रियाएं करनी चाहिये। जिस गण वा गच्छ में अतिचार लगा हो उसको मन-वचन-कायसे होने वाले मिथ्याकाराविक के द्वारा उसी गण वा गच्छ में शुद्ध करना चाहिये ।।२२६६२२६७॥
अकेले मुनि को आर्यिका के साथ ठहरने का निषेध -
प्रायिकाद्यमिवो कालेचागमने क्वचित् । स्थातव्यं विजने नैव मुनिर्नकाकिना भुवि ||६८ || अर्थ-जिका आदि समस्त स्त्रियां यदि आने के समय भी आये तो भी निर्जन स्थान में अकेले सुमि को कभी नहीं ठहरना चाहिये ।।२२६८ ॥
rait for से बातचीत करने से उत्पन्न दोषों का कथन ---
ताभिर्यावियोषिद्भिः महालापोतिदोषकृत् । प्रकार्येण न कर्तव्योमुनिभिनिर्मलाशयैः ।। २२६६ ॥ अर्थ-उन भजिका आदि स्त्रियों के साथ बातचीत करना भी अनेक दोष उत्पन्न करनेवाला है । अतएव निर्मल हृदय को धारण करनेवाले सुनियोंको बिना काम के उनके साथ कभी बातचीत नहीं करनी चाहिये ।।२२६६ ॥