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मूलाचार प्रदीप] । ३४५)
सप्तम प्रोधकार अर्थ-इसप्रकार के प्रश्नों से तथा परीक्षा प्रावि से यदि वे मुनि शुद्ध हृदय वाले सिद्ध हो जाते हैं तथा वे मुनि विनयवान उद्यमी बुद्धिमान हैं, व्रतशील से परिपूर्ण हैं तो वे आचार्ग उनसे कह देते हैं कि तुम जो अपनी इच्छानुसार श्रुतादिका पठन-पाठन करना चाहते तो वह अपनी शक्तिके अनुसार विधि पूर्वक करो ॥२२५१-२२५२।। व्रताचरण से अशुद्ध आगन्तुक मुनि को छेदोपस्थापना आदि तपश्चर | प्रायश्चित ] देन हैंयद्यशुद्धो व्रताचाररागन्तुकस्ततोस्य च । धातव्यगरिगना छंदोपस्थापनादिक तपः ।।२२५३।।
अर्थ-यदि उस परीक्षा में आचार्य यह समझते हैं कि इनके व्रत प्राचरण प्रादि शुद्ध नहीं है तो वे प्राचार्य उनको व्रतोंकी शुद्धि के लिये छेदोपस्थापना प्रादि तपश्चरण करने के लिये कहते हैं ।।२२५३॥
प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करनेवाले मुनि को संघ में नहीं रखतेयदीच्छति न शिष्योसो तत्प्रायश्चित्तमंजसा । वजनीयस्ततस्तेनस्वसंघालिथिलोवृतम् ॥२२५४।।
अर्थ-यदि वे पाये हये शिष्य मुनि उन प्राचार्यों के दिये प्रायश्चित्त को स्वीकार नहीं करते हैं तो वे प्राचार्य ऐसे शिथिलाचारियों को शीघ्र ही छोड़ देते हैं अपने संघमें नहीं रखते ।।२२५४।।
शिथिलाचारियों को सथ में रखने से प्राचार्य छेद प्रायश्चित्त के भागी होते हैंध्यामोहेनाथवाधार्योऽशुद्ध गलातितादृशम् । तत: सोपि गणो ननछेदाहःस्थाप्नवान्यषा ।।२२५५।।
__ अर्य-यदि वे प्राचार्य किसी मोह वा अज्ञानता के कारण उस प्रशुद्ध प्राचरण बाले शिथिलाचारी को अपने संघ में रख लेते हैं तो फिर वे प्राचार्य भी छेद नाम के प्रायश्चित्त के भागी हो जाते हैं। फिर बिना छेद प्रायश्चित्त के वे प्राचार्य भी शुद्ध नहीं हो सकते । २२५५॥ प्रागन्तुक मुनिको आत्मशुद्धि के लिये द्रव्यादि शुद्धि पूर्वक पागम का अभ्यास करना चाहिए--
एषमुक्तामणषप्राघूर्णकउपस्थितः । गृहोसोविधिनानेनकुर्यादेवं ततश्चिदे ।।२२५६।। सम्पद्रध्यवरांगाद्यान् प्रतिलेल्यप्रयत्नतः । क्षेत्रकालविशुद्धिच भावविश्रुताम्बिकाम् ॥२२५७|| विधायसूरिमानम्योपमारविनयादिभिः । शिष्येणावत्रिशुधासदाध्येतव्यंजिनागमम् ।।२२५८।।
__ अर्थ-यवि प्राचार्य ने विधि पूर्वक उन पाए हुए मुनियोंको ग्रहण कर लिया हो तो फिर उन आये हुये शिष्यों को अपनी आत्मशुद्धि के लिये नीचे लिखे अनुसार कार्य करने चाहिये। सबसे पहले उपकरण प्रादि द्रव्यों को, पृथ्वी को, अपने शरीर