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मूलाचार प्रदीप ]
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[ सप्तम अधिकार रहते हों उनको पाठक वा उपाध्याय कहते हैं ॥२२१८-२२१६॥
प्रवर्तक एवं स्थविर मुनि का लक्षा-- चतुःषमएसंघामाचर्याविमर्गवेशने । प्रवृत्याच पकारान् यः करोति स प्रवर्तकः ।।२२२०।। बालबाविशिष्याणासन्मार्गस्योपदेशकः । यः सर्वज्ञानमायुक्यास्यविरःसोन्यमानितः ॥२१॥
अर्थ--जो श्रेष्ठ मुनि चारों प्रकार के मुनियों को चर्या आदि के मार्ग को दिखलाने में वा प्रवृत्ति कराने में उपकार करते हों उनको प्रवर्तक साधु कहते हैं । जो मुनि सर्वज्ञदेव की प्राज्ञाके अनुसार युक्तिपूर्वक बालक वा वृद्ध शिष्यों को श्रेष्ठ मार्गका उपदेश देते हैं तथा जिन्हें सब मानते हैं उनको स्थविर कहते हैं ॥२२२०-२२२१॥
गणधर मुनि का लक्षणगणस्थ सर्वसंघस्य पालकः परिरक्षकः । यो नानोपायशिक्षाय योगणपरोनसः ।।२२२२॥
अर्थ--जो शिक्षा आदि अनेक उपायोंसे समस्त संघकी रक्षा करते हों, सबका पालन करते हों, उनको गणधर कहते हैं ।।२२२२॥
कैसे प्राचार्य का साभिप्य ही गुण वृद्धि का कारण हैप्रमोषां निकटेनूनवसतांगुणराशयः । पर्वतेसाहचर्येरणयथारमौवायुनोमयः ॥२२२३।।
अर्थ-जिसप्रकार वायुसे समुद्र की लहरें बढ़ती हैं, उसीप्रकार इन आचार्य प्रावि के समीप निवास करने से उनके सहवास से अनेक गुणों के समूह बढ़ते हैं । ।।२२२३॥
इच्छानुमार विहार करोड़ों दोषों का कारण हैस्वेच्छावासविहारादिकृतामेकाकिनांभुवि । होयन्सद्गुणानित्यं ते दोषकोटमः ।।२२२४।।
अर्थ-जो मुनि अकेले ही अपनी इच्छानुसार चाहे जहां निवास करते हैं, चाहे जहां विहार करते हों उनके श्रेष्ठ गुण सब नष्ट हो जाते हैं और करोड़ों दोष प्रतिदिन बढ़ते रहते हैं ।।२२२४॥
पंचम कालमें २-३ साघु सहित विहार ही कल्याणकारी है-- प्रवाहोपंचमेकालेपिम्पादगदुष्टपूरिते। होमसंहननानां च मुनीनां चंचलास्मनाम् ।।२२२५५। विनितुर्याक्सिंगपेमसमुशायेन क्षेमकृत् । प्रोक्तोगासोविहारमपुत्सर्गकरणादिकः ।।२२२६।।
अर्थ- मह पंचमकाल मिच्यादृष्टि और दुष्टों से ही भरा हुआ है । तया इस